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क्रिया अध्ययन
(१) जातिमएण वा, (२) कुलमएण वा, (३) बलमएण वा, (४) रूवमएण वा, (५) तवमएण वा, (६) सुयमएण वा, (७) लाभमएण वा, (८) इस्सरियमएण वा. (९) पण्णामपण
वा ।
अन्नयरेण वा मयट्ठाणेण मत्ते समाणे पर डीलेड, निंदेड़, खिंसइ, गरहइ, परिभवइ, अवमण्णेइ,
इत्तरिए अयं अहमंसि पुण विसिट्ठजाइकुल बलाइ गुणोववे
एवं अप्पाणं समुक्कसे देहा चुए कम्मबिए अवसे पयाइ, तं जहा
गभाओ गब्धं, जम्माओ जम्मं,
माराओ मारं णरगाओ णरगं,
चंडे, थद्धे, चबले, माणी या वि भवइ । एवं खलु तस्स तम्पत्तिय सावज्जे ति आहिज्ज
नवमे किरियाठाणे माणवत्तिए ति आहिए।
१० - अहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ.
से जहाणामए केइ पुरिसे
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माईडिं वा पिईहिं वा भाईहिं या भगिणीहिं वा भज्जाहिं वा, धूयाहिं वा पुत्तेहिं या सुण्हाहिं या सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंड निवत्ते, तं जहा
सीओदगवियसि वा कार्य ओबोलिता भवद्द,
उसिणोदगवियडेण वा कार्य ओसिंचित्ता भवइ, अगणिकाएण या कार्य उडुहिता भवइ.
जोत्तेण वा, वेत्तेण वा, णेत्तेण वा, तया वा, कसेण वा, छियाए वा. लयाए वा अन्नवरेण वा दवरेण पासाई उद्दालेता भवइ ।
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दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण या लेलूण वा कयालेण या कार्य आउट्टित्ता भवइ । तहयगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति ।
तहप्पगारे पुरिसजाए दंडपासी दंडगरुए दंडपुरक्खडे अहिए इमसि लोगंसि, अहिए परंसि लोगसि ।
संजलणे कोहणे पिठिमसि या वि भवइ
एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ ।
दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए ति आहिए।
११ - अहावरे एक्कारसमे किरियाठाणे मायावतिए त्ति आहिज्जइ,
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(१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) रूपमद, (५) तपमद, (६) श्रुतमद, (७) लाभमद, (८) ऐश्वर्यमद, (९) प्रज्ञामद ।
इन मद स्थानों में से किसी एक मद-स्थान से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति की अवहेलना करता है, निन्दा करता है, झिड़कता है, गर्हा करता है, तिरस्कार करता है, अपमान करता है।
यह व्यक्ति हीन है और मैं विशिष्ट जाति, कुल, बल आदि गुणों से से युक्त हूँ।.
इस प्रकार वह अपने आपको उत्कृष्ट मानता है ऐसा व्यक्ति शरीर छोड़कर कर्मों को साथ लेकर विवशतापूर्वक परलोक प्रयाण करता है, यथा
एक गर्भ से दूसरे गर्भ को एक जन्म से दूसरे जन्म को,
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एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को प्राप्त करता है।
वह क्रोधी, अविनयी, चंचल और अभिमानी होता है।
इस प्रकार उस पुरुष को अभिमान की क्रिया के कारण सावधकर्म का बन्ध होता है।
यह नौवां मानप्रत्ययिक दण्डसमादान (क्रिया स्थान) कहा गया है। १०- अब दसवां मित्र दोष प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा जाता है
जैसे कोई पुरुष -
माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्री, पुत्र और पुत्रवधुओं के साथ निवास करता हुआ उनके किसी छोटे से अपराध पर स्वयं भारी दण्ड देता है, यथा
सर्दी के दिनों में अत्यन्त ठण्डे पानी में उनके शरीर को डुबोता है, गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर उबलता हुआ पानी छिड़कता है, आग से उनके शरीर को डाम देता है,
तथा जोत, बेंत, छड़ी, चमड़ा, कसा, चाबुक, लकड़ी, लता, चाबुक या अन्य किसी प्रकार की रस्सी से प्रहार करके उसके बगल की चमड़ी उधेड़ देता है,
एवं डंडे, हड्डी, मुट्ठी, ढेले, ठीकरे या खप्पर से मार-मार कर उसके शरीर को लोहूलुहान कर देता है।
ऐसे पुरुष के घर में रहने पर परिवार वाले दुःखी होते हैं और परदेश जाने पर सुखी होते हैं,
ऐसा डंडा पास में रखने वाला, भारी दण्ड देने वाला और दण्ड को आगे रखने वाला पुरुष इस लोक में तो अपना अहित करता ही है, परलोक में भी अपना अहित करता है।
वह क्रोध से जलता रहता है और पीठ पीछे चुगली करता है। इस प्रकार उस पुरुष को मित्रों से द्वेष करने के कारण सावध पापकर्म का बन्ध होता है।
यह मित्र दोषप्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रियास्थान) कहा गया है।
११ - अव ग्यारहवां माया प्रत्ययिक दण्डसमादान (क्रिया स्थान ) कहा जाता है
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