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९५२ नाई ते पारलोइयस्स अट्ठस्स किंचि वि सिलिस्सति ते दुक्खंति, ते सोयंति, ते जूरंति, ते तिप्पंति, ते पिट्टति, ते परितप्पंति, ते दुक्खण-सोयण-जूरण-तिप्पण-पिट्टणपरितप्पणं-वह-बंधणपरिकिलेसाओ अपडिविरया भवंति। ते महया आरंभेणं, ते महया समारंभेणं, ते महया आरंभ समारंभेणं विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजित्तारो भवंति,तं जहाअन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले, सपुव्वावरं च णं हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसाण्हाए कंठे मालकडे आविद्धमणिसुवण्णे कप्पियमालामउली पडिबद्धसरीरे वग्धारियसोणिसुत्तग-मल्ल-दामकलावे अहयवत्थपरिहिए चंदणोक्खित्तगाय-सरीरे
महइमहालियाए कूडारगारसालाए, महइमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिवुडे, सव्वराइएणं जोइणा झियायमाणेणं, महयाहयनट्ट गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं, उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेव अब्भुटेंति भण देवाणुप्पिया ! किं करेमो? किं आहरेमो ? किं उवणेमो? किं उवट्ठावेमो? किं भे हियइच्छियं? किं भे आसगस्स सयइ? तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति'देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे।' अण्णे विणं उवजीवंति। तमेव पासित्ता आरिया वदंतिअभिक्कतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे अइधुए, अइआयरक्खे दाहिणगामिए नेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभबोहिए या वि भविस्सइ। इच्चेयस्स ठाणस्स उठ्ठित्ता वेगे अभिगिज्झंति, अणुट्ठित्ता वेगे अभिगिझंति, अभिझंझाउरा अभिगिज्झति। एस ठाणे अणारिए अकेवले अप्पडिपुण्णे अणेआउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिव्वाणमग्गे अणिज्जाणमग्गे असव्वदुक्खप्प हीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु। एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए।
-सुय. सु.२, अ.२, सु.७०९-७१० अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ
द्रव्यानुयोग-(२)) वे कुछ भी पारलौकिक अर्थ की साधना नहीं कर पाते। वे दुःखी होते हैं, शोक करते हैं, खिन्न होते हैं, आंसू बहाते हैं, पीटे जाते हैं
और परितप्त होते हैं। वे दुःख, शोक, खेद, अश्रु-विमोचन, पीड़ा, परिताप, बन्ध और परिक्लेश से विरत नहीं होते हैं। वे महान् आरम्भ, समारंभ, महान् आरम्भ-समारंभ, नाना प्रकार के पापकारी कृत्यों से उदार मानुषिक भोगों को भोगने वाले होते हैं, जैसेभोजन के समय भोजन, पानी के समय पानी, वस्त्र के समय वस्त्र, आवास के समय आवास और शयन के समय शयन। वह सायं-प्रातः हाथ-मुँह धो, कुल देवता की पूजा कर, कौतुक-मंगल और प्रायश्चित्त कर, सिर से पैर तक नहा कर, गले में माला पहन कर, मणिजटित सुवर्णमय चूडामणी पहनकर मालायुक्त मुकुट धारण कर, कमरपट्टा बांधकर पुष्पमाला युक्त प्रलम्बमान करधनी को धारण कर, नए वस्त्र पहन कर शरीर और उसके अवयवों पर चन्दन का उपलेप कर, अति विशाल कूटागारशाला में अति विशाल सिंहासन पर बैठ, स्त्री-समूह से परिवृत हो, पूरी रात दीपक के जलते, महान् प्रयत्न से आहत, नाट्य, गीत, वाद्य, वीणा, तल, ताल, तुर्य, घंटा और मृदंग के कुशलवादकों द्वारा बजाए जाते हुए स्वर के साथ उदार मानुषिक भोगों को भोगता हुआ रहता है। वह एक को आज्ञा देता है तब बिना बुलाए चार-पाँच मनुष्य उठ खड़े होते हैं। (वे कहते हैं) 'कहें देवानुप्रिय ! हम क्या करें? क्या लाएं? क्या भेंट करें? क्या उपस्थित करें? आपका दिल क्या चाहता है? आपके मुख को क्या स्वादिष्ट लगता है?' उस पुरुष को देख अनार्य इस प्रकार कहते हैं'यह पुरुष देवता है, यह पुरुष देव-स्नातक हैं, यह पुरुष देवता का जीवन जीने वाला है।' इसके सहारे दूसरे भी जीते हैं। उसी पुरुष को देख आर्य कहते हैंयह कूरकर्म में प्रवृत्त, भारी कर्म वाला, अति स्वार्थी, दक्षिण दिशा में जाने वाला, नरक में उत्पन्न होने वाला, कृष्णपाक्षिक और भविष्यकाल में दुर्लभबोधिक होगा। इस (भोगी) पुरुष जैसे स्थान को कुछ प्रव्रजित पुरुष भी चाहते हैं, कछु गृहस्थ भी चाहते हैं। जो तृष्णा से आतुर हैं (वे सब) चाहते हैं। यह स्थान अनार्य, द्वन्द्व सहित, अप्रतिपूर्ण, न्याय रहित, अशुद्ध, शल्यों को नहीं काटने वाला, सिद्धि का अमार्ग, निर्वाण का अमार्ग, निर्याण का अमार्ग, सब दुःखों के क्षय का अमार्ग, एकांत मिथ्या
और बुरा है। यह प्रथम स्थान अधर्म पक्ष का विकल्प इस प्रकार निरूपित है।
अब प्रथम स्थान अधर्मपक्ष का विकल्प (पुनः) इस प्रकार कहा जाता है