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जे इमे भवति - गूढायारा तमोकासिया, उलूगपत्तलहुया, पव्वयगुरुया, ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ विउज्जति ।
अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरेति,
अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खति ।
से हाणामए के पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं णो सयं णीहर, णो अन्नेण णीहरावे, णो पडिविद्धंसेइ, एवामेव निण्हवेइ, अविट्टमाणे अंतो- अंतो रियाइ,
एवामेव माई मायं कट्टु णो आलोएड, णो पडिक्कमे णी जिंदड़, णी गरड, णो विउट्टड, णो विसोहेड, णो अकरणयाए अब्भुट्ठे णो अहारिह तयोकम्पं पायच्छित्त पडिय
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मायी अस्सि लोए पच्चायाह मायी परंसि लोए पुणो- पुणो पच्चायाइ, निंद गहाय पसंसए णिच्चरs, ण नियट्टइ णिसिरिय दंड छाएड.
मायी असमाहडहलेसे या विभवइ ।
एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ ।
एक्कारसमे किरियाठाणे मायावत्तिए त्ति आहिए।
१२ - अहावरे बारसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिज्जइ,
जे इमे भवति आरण्णिया आवसहिया, गामंतिया कण्हुई रहस्सिया,
णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया, सव्यपाण भूय-जीव-सत्तेहि
ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विरंजंति
अहं ण हंतब्वो, अन्ने तव्या
अहं ण अज्जावेयव्वो, अन्ने अज्जावेयव्वा,
अहं ण परिघेत्तव्वो, अन्ने परिघेत्तव्वा,
अहं ण परितावेयव्वो, अन्ने परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयब्यो, अन्ने उद्दवेयव्वा,
एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया, गिद्धा, गडिया, गरहिया, अज्झोववण्णा जाब बासाई बउ पंचमाई छद्दसमाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवति ।
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तओ विप्पमुच्चमाणा भुज्जो - भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइमूयत्ताएं पच्चायति ।
द्रव्यानुयोग - (२)
उल्लू
जो पुरुष गूढ आचार वाले, अंधेरे में दुराचार करने वाले, पंख के समान हल्के होते हुए भी अपने आपको पर्वत के समान भारी मानने वाले ऐसे ये आर्य होते हुए भी अनार्य भाषाओं का प्रयोग करते हैं।
के
वे अन्य रूप में होते हुए भी स्वयं को अन्य रूप में मानते हैं। वे अन्य बात पूछने पर अन्य बात की व्याख्या करते हैं, उन्हें कहना तो कुछ और चाहिए किन्तु कहते कुछ ओर ही हैं। जैसे कोई (अन्दर के शल्य वाला) पुरुष उस शल्य को स्वयं नहीं निकालता है, न किसी दूसरे से निकलवाता है, न उसको नष्ट करता है किन्तु निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है और न निकालने पर वह शल्य अन्दर ही अन्दर गहरा चला जाता है,
इसी प्रकार मायावी माया करके उसकी आलोचना नहीं करता, प्रतिक्रमण नहीं करता, निन्दा नहीं करता, गर्हा नहीं करता, उसका त्याग नहीं करता, उसका विशोधन नहीं करता, पुनः करने के लिए उद्यत नहीं होता और यथायोग्य तपकर्मरूप प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता है।
ऐसा मायावी . इस लोक में जन्म लेता है और परलोक में भी पुनः पुनः जन्म लेता है। वह दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे से घृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है, असत् कार्यों से निवृत्त नहीं होता है और दण्ड देकर भी उसे छिपाता है।
ऐसा मायावी अशुभ लेश्याओं से युक्त होता है।
इस प्रकार उस पुरुष को माया युक्त क्रियाओं के कारण सावद्य पाप कर्म का बन्ध होता है।
यह ग्यारहवां माया प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा गया है।)
१२- अब बारहवां क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक कहा जाता है
जो ये वन में निवास करने वाले, कुटी बनाकर रहने वाले, ग्राम के निकट डेरा डालकर रहने वाले किसी गुप्त साधना को करने वाले
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वे सर्वथा संयमी नहीं हैं समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्वों की हिंसा से स्वयं विरत भी नहीं हैं,
वे स्वयं कुछ सत्य और कुछ मिथ्या वाक्यों का प्रयोग करते हैं कि
"मैं मारे जाने योग्य नहीं है, अन्य मारे जाने योग्य हैं,
मैं आज्ञा देने योग्य नहीं हूँ, अन्य आज्ञा देने योग्य हैं,
मैं दास होने योग्य नहीं हूँ, अन्य दास होने योग्य हैं, मैं सन्ताप देने योग्य नहीं हूँ, अन्य सन्ताप देने योग्य हैं, मैं पीड़ा देने योग्य नहीं है, अन्य पीड़ा देने योग्य है। इसी प्रकार वे स्त्री भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रस्त, गर्हित, आसक्त होकर चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक काम-भोगों का उपभोग करके मृत्यु के समय मरकर असुरों में या किल्विषिक स्थानों में उत्पन्न होते हैं।
वे वहाँ से मरकर पुनः पुनः बकरे की तरह गूंगे, अंधे एवं जन्म से गूंगे-अंधे होते हैं।