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नाम से वारणो, तस्वहिस्सामिति अमितभूए
से किं नु हु नाम से वहए तस्स वा गाहावइस्स, तस्स वा गाहावइपुत्तस्स, तस्स वा रण्णो, तस्स वा रायपुरिसस्स, खणं निदाए पविसिस्सामि, खणं लक्ष्णं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे भवइ?
एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे? चोयए हता भवइ।
आयरिय आह-जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स, तस्स वा गाहावइपुत्तस्स, तस्स वा रण्णो, तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि, खणं लभ्रूणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविओवायचित्तदंडे,
एवामेव बाले वि सव्वेसिं पाणाणं जाव सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे, पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले।
द्रव्यानुयोग-(२) वह हत्यारा उस गृहपति की, गृहपति पुत्र की अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करने हेतु अवसर पाकर घर में प्रवेश करूँगा और अवसर पाते ही प्रहार करके हत्या कर दूंगा, इस प्रकार का संकल्प विकल्प करने वाला (वह बधक) दिन को या रात को, सोते या जागते प्रतिक्षण इसी उधेड़बुन में रहता है, वह उन सबका अमित्र (शत्रु) भूत है,उन सबसे मिथ्या (प्रतिकूल) व्यवहार करने में जुटा हुआ है, चित्तरूपी दण्ड में सदैव विविध प्रकार से निष्ठुरतापूर्वक घात का दुष्ट विचार रखता है, क्या ऐसा व्यक्ति उन पूर्वोक्त (व्यक्तियों) का हत्यारा कहा जा सकता है या नहीं? आचार्यश्री द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर प्रेरक (प्रश्नकर्ता) शिष्य समभाव के साथ कहता है-"हाँ पूज्यवर ! ऐसा पुरुष हत्यारा (हिंसक) ही है।" आचार्य ने पुनः कहा-जैसे उस गृहपति या गृहपति के पुत्र को अथवा राजा या राजपुरुष को मारना चाहने वाला वह वधक पुरुष सोचता है कि अवसर पाकर इसके मकान (या नगर) में प्रवेश करूँगा और मौका मिलते ही प्रहार करके इस का वध कर दूंगा ऐसे दुर्विचार से वह दिन-रात सोते जागते हरदम घात लगाये रहता है, सदा उनका शत्रु (अमित्र) बना रहता है, मिथ्या (गलत) कुकृत्य करने के लिए तत्पर रहता है, विभिन्न प्रकार से उनके घात के लिए नित्य शठतापूर्वक हृदय में दुष्ट संकल्प विकल्प करता रहता है, इसी प्रकार (अप्रत्याख्यानी, बाल, अज्ञानी) जीव भी समस्त प्राणियों भूतों यावत् सत्वों का दिन-रात सोते-जागते सदा वैरी (अमित्र) बना रहता है, मिथ्याबुद्धि से ग्रस्त रहता है, उसको नित्य निरन्तर उन जीवों को शठतापूर्वक मारने के विचार उत्पन्न होते रहते हैं क्योंकि वह (अप्रत्याख्यानी बाल जीव) प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त अठारह ही पापस्थानों में ओतप्रोत रहता है। इसलिए भगवान् ने ऐसे जीव के लिए कहा है कि वह असंयत, अविरत, पापकर्मों का (तप आदि से) नाश एवं प्रत्याख्यान न करने वाला, पाप क्रिया से युक्त संवररहित एकान्तरूप से प्राणियों को दण्ड देने वाला सर्वथा बाल (अज्ञानी) एवं सर्वथा सुप्त भी होता है। वह बाल अज्ञानी जीव मन, वचन, काय और वाक्य का विचारपूर्वक (पापकर्म में) प्रयोग न करता है, (पापकर्म करने का) स्वप्न भी न देखता हो तब भी वह (अप्रत्याख्यानी होने के कारण) पापकर्म का बंध करता है। जैसे वध का विचार करने वाला घातक पुरुष उस गृहपति यावत् राजपुरुष की हत्या करने का दुर्विचार चित्त में लिए हुए रात-दिन सोते-जागते अमित्र होकर कुविचारों में डूबकर सदैव उनकी हत्या करने की धुन में रहता है। इसी प्रकार (अप्रत्याख्यानी भी) समस्त प्राणों यावत सत्वों के प्रति हिंसा के भाव रखने वाला अज्ञानी जीव दिन-रात सोते-जागते सदैव उन प्राणियों का शत्रु और मिथ्या विचारों में स्थिर होकर यावत् मन में घात की बात सोचता रहता है। प्रश्नकर्ता ने कहा-यह पूर्वोक्त बात मान्य नहीं हो सकती। क्योंकि इस जगत् में बहुत से ऐसे प्राणी हैं जिनके शरीर को न कभी देखा है, न ही सुना है, वे प्राणी न अपने अभिमत (इष्ट) हैं और न वे ज्ञात हैं।
एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते या वि भवइ, से बाले अवियार-मण-वयण-काय-वक्के सुविणमवि ण पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्जइ।
जहा से वहइ तस्स वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं-पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविओवातचित्तदंडे भवइ, एवामेव बाले सव्वेसिं पाणाणं जाव सव्वेसिं सत्ताणं पत्तेयं-पत्तेयं चित्तं समादए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए जाव चित्तदंडे भवइ।
णो इणढे समढे चोयगो। इह खलु बहवे पाणा जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा, नो सुया वा, नाभिमया वा, विण्णाया वा,