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क्रिया अध्ययन
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असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमण-वयण-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे नो कज्जइ।
कस्स णं तं हेउं?
चोयए एवं ब्रवीतिअण्णयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अण्णयरीए वईए पावियाए वइवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अण्णयरेणं काएणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतस्स समणक्खस्स सवियारमण-वयण-काय-वक्कस्स सुविणमवि पासओ, एवं गुणजाईयस्स पावे कम्मे कज्जइ।
पुणरवि चोयए एवं ब्रवीतितत्थ णं जे ते एवमाहंसुअसंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियार-मण वयण-काय वक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ,जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु।
तत्थ पण्णवगे चोयगं एवं वयासी
पापयुक्त मन न होने पर, पापयुक्त वचन न होने पर तथा पापयुक्त काय न होने पर जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता, जो अमनस्क है, जिसका मन, वचन, काय और वाक्य हिंसादि पापकर्म के विचार से रहित है,जो स्वप्न में भी पापकर्म करने की नहीं सोचता, ऐसे जीव के पापकर्म का बंध नहीं होता है। (प्रश्नकर्ता से किसी ने पूछा) पापकर्म के बंध नहीं होने का क्या कारण है? उत्तर में प्रेरक (प्रश्नकर्ता) ने इस प्रकार कहामन के पापयुक्त होने पर ही मानसिक पापकर्म किया जाता है, पापयुक्त वचन होने पर ही वाचिक पापकर्म किया जाता है, पापयुक्त शरीर होने पर ही कायिक पापकर्म किया जाता है, जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जान बूझकर मन, वचन, काय और वाक्य का प्रयोग करता है और स्वप्न भी देखता है। इन विशेषताओं से युक्त जीव पापकर्म करता है। प्रेरक (प्रश्नकर्ता) पुनः इस प्रकार कहता हैइस विषय में जो यह कहते हैंमन भी पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, शरीर भी पापयुक्त न हो, किसी प्राणी का घात न करता हो, अमनस्क हो, मन, वचन, काय और वाक्य के द्वारा भी पाप प्रवृत्ति न करता हो और स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो, तब भी (वह) पापकर्म करता है, तो वे मिथ्या कहते हैं। इस पर प्रज्ञापक (उत्तरदाता) ने प्रेरक (प्रश्नकार) से इस प्रकार कहाजो मैंने पहले कहा था कि मन पाप युक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, काय भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, मन, वचन, काय और वाक्य का समझ-बूझकर प्रयोग न करता हो और वैसा (पापकारी) स्वप्न भी न देखता हो तब भी ऐसा जीव पापकर्म करता है, यही सत्य है। इस कथन का क्या हेतु है? आचार्य (प्रज्ञापक) ने कहा-इसके लिए भगवान् ने षड्जीव निकायों को कर्मबंध के कारण रूप में कहा है, यथा१.पृथ्वीकाय यावत् ६.त्रसकाय। इन छह जीव निकाय के जीवों की हिंसा से जघन्य पाप को जिस आत्मा ने तपश्चर्या आदि करके नष्ट नहीं किया, पापकर्म का प्रत्याख्यान नहीं किया और जो सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में दत्तचित्त रहता है और उन्हें दण्ड देता है, यथा१. प्राणातिपात यावत् ५. परिग्रह तथा ६. क्रोध यावत् १८. मिथ्यादर्शनशल्य (इन अठारह पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है वह पापकर्म का बंध करता है, वह सत्यहै।) आचार्य (प्ररूपक) पुनः कहते हैं इस विषय में भगवान् ने एक बधक (हत्यारे) का दृष्टान्त दिया हैजैसे कोई एक हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा गृहपति के पुत्र की अथवा राजा की या राजपुरुष की हत्या करना चाहता है और विचार करता है कि 'मैं अवसर पाकर घर में प्रवेश करूँगा तथा मौका मिलते ही उस पर प्रहार करके हत्या कर दूंगा'
जं मए पुबुत्तं असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियार-मण-वयण-काय-वक्कस्स सुविणम वि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ तं सम्म।
कस्स णं तं हेउं? आयरिय आह-'तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता,तं जहा-१.पुढविकाइया जाव ६.तसकाइया।
इच्चेएहिं छहिं जीवनिकाएहिं आया अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे निच्चं पसढविओवात चित्तदंडे, तं जहा-१. पाणाइवाए जाव ५ परिग्गहे,,६ कोहे जाव १८ मिच्छादसणसल्ले,
आयरिय आह तत्थ खलु भगवया बहए दिटुंते पण्णत्ते,
से जहानामए वहए सिया गाहावइस्स वा, गाहावइपुत्तस्स वा, रण्णो वा, रायपुरिसस्स वा, खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लभ्रूणं वहिस्सामि पहारेमाणे,