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४७. आउत संयुड अणगारस्स किरिया परूवण
प. संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव आउत तुयट्टमाणस्स आउतं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछण गिन्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा, तस्स भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ?
उ. गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव निक्खियमाणस्स तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कज्जइ ।
प से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
" तस्स संवुडस्स णं अणगारस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ ?
उ. गोयमा जस्स णं कीह-माण माया लोभायोच्छिन्ना भवति तस्स इरियायहिया किरिया कजड़,
तहेब जाव उस्सुतं रीयमाणस्स संपराइया किरिया इसे अहासुत्तमेव रीयइ,
से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ"तस्स संयुहस्स णं अणगारस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ।"
-विया. स. ७, उ. ७, सु. १ ४८. पच्चक्खाण किरियाया वित्थरओ परूवणंसुयं मे आउस! तेण भगवया एवमक्लायं इह खलु पच्चक्खाण किरिया नामज्झयणे, तस्स णं अयमट्ठे-आया अपच्चक्खाणी या वि भवइ, या अकिरियाकुसले या विभवइ,
आया मिच्छासठिए या वि भवइ, आया एगंतदंडे या वि भवइ,
"
आया एगंतबाले या विभवइ,
आया एतत्ते या विभवइ,
आया अवियारमण-वयण-काय वक्के या वि भवइ,
आया अप्पsिहय पच्चक्खायपावकम्मे या वि भवइ,
एस खलु भगवया अक्खाए- असंजए-अविरए- अप्पsिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एतत्ते से बाले अवियारमण-वयण- काय वक्के सुविणम वि णं परसइ, पावे से कम्मे कज्जइ ।
"
तत्थ चोय पण्णवगं एवं वयासि
द्रव्यानुयोग - (२)
४७. उपयोग सहित संवृत अनगार की क्रिया का प्ररूपण
प्र. भंते ! उपयोग सहित चलते यावत् करवट बदलते तथा
उपयोग सहित वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन आदि ग्रहण करते और रखते हुए संवृत अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ?
उ. गौतम ! उपयोग सहित गमन करते हुए यावत् रखते हुए उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है।
प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"उस संवृत अणगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है?
उ. गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हैं उसको ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है,
उसी प्रकार यावत् उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले को साम्परायिकी क्रिया लगती है क्योंकि वह उत्सूत्र प्रवृत्ति करता है।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि
"उस संवृत अणगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है। साम्परायिकी किया नहीं लगती है।
४८. प्रत्याख्यान क्रिया का विस्तार से प्ररूपण
आयुष्मन् ! उन भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, मैंने सुना । इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रत्याख्यान क्रिया नामक अध्ययन है। उसका यह आशय है-आत्मा (जीव) अप्रत्याख्यानी (सावधानी का त्याग न करने वाला भी होता है, आत्मा अक्रियाकुशल (शुभक्रिया न करने में निपुण ) भी होता है,
आत्मा मिथ्यात्व (के उदय) में संस्थित भी होता है,
आत्मा एकान्त रूप में (दूसरे प्राणियों को) दण्ड देने वाला भी होता है,
आत्मा एकान्तरूप से (सर्वथा बाल अज्ञानी) भी होता है,
आत्मा एकान्तरूप से सुषुप्त भी होता है,
आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य (की प्रवृत्ति) पर विचार करने वाला भी नहीं होता है।
आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत (घात) एवं प्रत्याख्यान करने वाला भी नहीं होता है।
इस जीव (आत्मा) को भगवान् ने असंयत (संयमहीन ) अविरत हिंसा आदि से अनिवृत्त, पापकर्म का घात (नाश) और प्रत्याख्यान (त्याग) न किया हुआ सक्रिय, असंवृत, प्राणियों को एकान्त (सर्वथा) दण्ड देने वाला, एकान्तबाल, एकान्तसुप्त कहा है और मन, वचन, काया तथा वाक्य (की प्रवृत्ति) के विचार से रहित वह अज्ञानी (हिंसा का ) स्वप्न भी नहीं देखता है- (अव्यक्त चेतना वाला है) तो भी वह पापकर्म का बंध करता है।
इस पर प्रश्नकर्ता ने प्ररूपक से इस प्रकार पूछा