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तस्स णं नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया
किरिया कज्जइ। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चापुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाई आलोएमाणस्स तस्स णं नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ?" उ. गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना
भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिन्ना भवंति,
द्रव्यानुयोग-(२) उस को ईर्यापथिको क्रिया नहीं लगती, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"संवृत अणगार कषायभाव में स्थित होकर सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए उसको ईर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है?" उ. गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट हो
गये हैं। उसी को ईर्यापथिकी क्रिया लगती है। उसे साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है। किन्तु जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट नहीं
तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ, नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, अहासुतं रियं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ,
उस्सुत्तरीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ,
से णं उस्सुत्तमेव रीयइ। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-" "संवडुस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चापुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाई आलोएमाणस्स तस्स णं नो इरियावहिया किरिया कज्जइ,
संपराइया किरिया कज्जइ।" प. संवुडस्सणं भंते ! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चा
पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाइं आलोएमाणस्स, तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ?
संपराइया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चा
पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाइं आलोएमाणस्स, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ,
नो संपराइया किरिया कज्जइ। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"संवुडस्स णं अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चापुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाई आलोएमाणस्स, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ?
उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है। ईर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती है। सूत्र के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले को ईर्यापथिकी क्रिया लगती है। सूत्र विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को सांपरायिकी क्रिया लगती है। क्योंकि वह सूत्र विरुद्ध आचरण करता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"संवृत अणगार कषाय भाव में स्थित होकर सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए उसको ईर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है।" प्र. भंते ! संवृत अनगार अकषाय भाव में स्थित होकर
सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए, भंते ! क्या उसे ईर्यापथिकी क्रिया लगती है?
या साम्परायिकी क्रिया लगती है? उ. गौतम ! संवृत अनगार अकषाय भाव में स्थित होकर
सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए, उसको ईर्यापथिकी क्रिया लगती है,
किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"संवृत अनगार अकषाय भाव में स्थित होकर सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए उसको ईर्यापथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती?"