________________
क्रिया अध्ययन
९२७
दं. १२-१६. पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइया य एए सव्वे वि जहा ओहिया जीवा। दं.१७-२४ अवसेसा जहाणेरइया।
एवं एए जीवेगिंदियवज्जा तिण्णि भंगा सव्वत्थ भाणियव्व
ति
एवं मुसावाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं।
दं. १२-१६ पृथ्वी-अप-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक जीवों की कर्मप्रकृतियों का बन्ध सामान्य जीवों के समान कहना चाहिए। दं. १७-२४. शेष जीवों का नैरयिकों के समान कथन करना चाहिए। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर शेष दण्डकों में सर्वत्र तीन-तीन भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार मृषावाद से मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त कर्म बन्ध का भी कथन करना चाहिए। इस प्रकार एक और अनेक की अपेक्षा से छत्तीस दण्डक
होते हैं। ४४. जीव-चौवीस दंडकों में आठ कर्म बाँधने पर क्रियाओं का
प्ररूपणप्र. भंते ! एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता हुआ कितनी
क्रियाओं वाला होता है?
एवं एगत्त-पोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होति।
-पण्ण. प. २२, सु. १५८१-१५८४ ४४. जीव-चउवीसदंडएसु अट्ठकम्म बंधमाणे किरिया परूवणं-
प. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कई
किरिए?
उ. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय
पंचकिरिए। दं.१-२४ एवंणेरइए जाव वेमाणिए।
प. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा कइ
किरिया? उ. गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि।
उ. गौतम ! (वह) कदाचित् तीन, चार और पाँच क्रियाओं वाला
होता है। दं. १-२४. इसी प्रकार एक नैरयिक से (एक) वैमानिक पर्यन्त
आलापक कहना चाहिए। प्र. भंते ! (अनेक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधते हुए कितनी
क्रियाओं वाले होते हैं ? उ. गौतम ! (वे) कदाचित् तीन, चार और पाँच क्रियाओं वाले
होते हैं। दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त आलापक कहने चाहिए। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मप्रकृतियों के बंधकों की क्रियाओं के आलापक कहने चाहिए। एकत्व और पृथक्त्व की अपेक्षा कुल सोलह दण्डक होते हैं।
दं.१-२४ एवं णेरइया निरंतरं जाव वेमाणिया।
एवं दरिसणावरणिज्ज वेयणिज्ज मोहणिज्जं आउयं णामं गोयं अंतराइयं च कम्मपगडीओ भाणियव्वाओ।
एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा।
-पण्ण. प. २२,सु.१५८५-१५८७ ४५. वीयी-अवीयी-पंथेठियस्स संवुड अणगारस्स किरिया
परूवणंप. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा
पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाइं अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाइं अवलोएमाणस्स, उड्ढं रूवाइं आलोएमाणस्स, अहे रूवाइं आलोएमाणस्सतस्स णं भंते ! इरियावहिया किरिया कज्जइ?
संपराइया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा
पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स जाव अहे रूवाई आलोएमाणस्स
४५. वीची-अवीची पथ (कषाय-अकषाय भाव) में स्थित संवृत
अणगार की क्रिया का प्ररूपणप्र. भंते ! संवृत-अणगार कषाय भाव में स्थित होकर
सामने के रूपों को निहारते हुए, पीछे के रूपों का प्रेक्षण करते हुए, पार्श्ववर्ती रूपों का अवलोकन करते हुए, ऊपर के रूपों को देखते हुए, नीचे के रूपों को देखते हुए, क्या उसे ईर्यापथिकी क्रिया लगती है,
या साम्परायिकी क्रिया लगती है? उ. गौतम ! संवृत अणगार कषाय भाव में स्थित होकर
सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों को देखते हुए