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नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।' तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लूयतीरे नामं नयरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं उल्लूयतीरस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए एत्थ णं एगजंबुए नामं चेइए होत्था, वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव एगजंबुए समोसढे जाव परिसा पडिगया।
भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरे वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि
प. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो छठंछठेणं
अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झियपगिज्झिय सूराभिमुहे आयावेमाणस्स तस्स णं पुरथिमेणं अवड्ढं दिवंस नो कप्पइ हत्थं वा, पायं वा, बाहं वा, ऊरूं वा, आउंटावेत्तए वा, पसारेत्तए वा पच्चत्थिमेणं से अवड्ढे दिवसं कप्पइ, हत्थं वा, पायं वा, बाहं वा, ऊरूं वा, आउंटावेत्तए वा, पसारावेत्तए वा, तस्स य अंसियाओ लंबंति तं च वेज्जे अदक्खु ईसिं पाडेइ, ईसिं पाडेत्ता अंसियाओ छिंदेज्जा।
[ द्रव्यानुयोग-(२)] गुणशीलक नामक उद्यान से निकले और निकलकर बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में उल्लूकतीर नाम का नगर था। उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) जानना चाहिए। उस उल्लूकतीर नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिक् भाग (ईशान कोण) में एक जम्बूक नामक उद्यान था, उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) जानना चाहिए। एक बार किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् एक जम्बूक उद्यान में पधारे यावत् परिषद् (धर्मदेशना सुनकर) लौट गई। 'भंते !' इस प्रकार से सम्बोधित करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके फिर इस प्रकार पूछाप्र. भंते ! निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ
ऊपर को हाथ किये हुए सूर्य की तरफ मुख करके आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को (कायोत्सर्ग में) दिवस के पूवार्द्ध में अपने हाथ, पैर, बांह या उरू (जंघा) को सिकोड़ना या पसारना नहीं कल्पता है, किन्तु दिवस के पश्चिमार्द्ध (पिछले भाग) में अपने हाथ, पैर, बांह या उरू को सिकोड़ना या फैलाना कल्पता है इस प्रकार कायोत्सर्ग स्थित उस भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श (मस्सा) लटक रहा हो उस अर्श को किसी वैद्य ने देखा और काटने के लिए उस को लेटाया और लेटाकर अर्श का छेदन किया, उस समय भंते ! क्या अर्श को काटने वाले वैद्य को क्रिया लगती है? या जिस (अनगार) का अर्श काटा जा रहा है उसे एक मात्र
धर्मान्तरायिक क्रिया के सिवाय अन्य क्रिया तो नहीं लगती है ? उ. हां, गौतम ! जो (अर्श को) काटता है उसे (शुभ) क्रिया लगती
है और जिसका अर्श काटा जा रहा है उस अणगार को
धर्मान्तरायिक क्रिया के सिवाय अन्य कोई क्रिया नहीं लगती। ३६. पृथ्वीकायिकादिकों के द्वारा श्वासोच्छ्वास लेते-छोड़ते हुए की
क्रियाओं का प्ररूपणप्र. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर
एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रियाओं वाला होता है? उ. गौतम ! कदाचित् तीन क्रियावाला, कदाचित् चार क्रिया वाला
और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है। प. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव, अकायिक जीवों को आभ्यन्तर एवं
बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए
कितनी क्रियाओं वाला होता है? उ. गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से ही जानना चाहिए।
इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यंत कहना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि सभी (५ भंग) का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार तेजस्कायिक के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि सभी (५ भंग) का कथन करना चाहिए।
से नूणं भंते ! जे छिंदइ तस्स किरिया कज्जइ?
जस्स छिज्जइ नो तस्स किरिया कज्जइ णऽन्नत्थगेणं
धमंतराइएणं? उ. हंता, गोयमा ! जे छिंदइ तस्स किरिया कज्जइ, जस्स छिज्जइ नो तस्स किरिया कज्जइ णऽन्नत्थगेणं धम्मंतराइएणं।
-विया.स.१६,उ.३, सु.५-१० ३६. पुढविकाइयाणं आणमपाणममाणे किरिया परूवणं
प. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा,
पाणममाणे वा, ऊससमाणे वा, नीससमाणे वा कइ
किरिए? उ. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय
पंचकिरिए। प. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणममाणे वा,
पाणममाणे वा, ऊससमाणे वा, नीससमाणे वा कइ
किरिए? उ. गोयमा ! एवं चेव।
एवं जाव वणस्सइकाइयं। एवं आउक्काइएण वि सव्वे विभाणियव्या।
एवं तेउक्काइएण वि सव्वे विभाणियव्वा।
१. विया.स.१८,उ.७, सु. २३