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क्रिया अध्ययन
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१.णेसत्थिया २. आणवणिया ३. वेयारणिया ४. अणाभोगवत्तिया ५. अणवकंखवत्तिया। दं.१-२४. एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
-ठाण.अ.५,उ.२,सु.४१९ २२. मणुस्सेसुपेज्जवत्तियाइ पंच किरियाओ
पंच किरियाओ पण्णत्ताओ,तं जहा१. पेज्जवत्तिया, २. दोसवत्तिया ३. पओगकिरिया, ४. समुदाणकिरिया, ५. ईरियावहिया। दं.२१.एवं मणुस्साण वि, सेसाणं णत्थि।
-ठाणं.अ.५, उ.२,सु.४१९ २३. जीव-चउवीसदंडएसु जीवाई पडुच्च पाणाइवायाइयाणं
किरिया परूवणंप. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ? उ. गोयमा ! पुट्ठा कज्जई, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव
निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं।
१. बिना शस्त्र के होने वाली क्रिया, २. आज्ञा देने से होने वाली क्रिया, ३. छेदन भेदन करने से होने वाली क्रिया, ४. अज्ञानता से होने वाली क्रिया, ५. बिना आकांक्षा से होने वाली क्रिया। दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त पांचों क्रियाएं
जाननी चाहिए। २२. मनुष्यों में होने वाली प्रेय-प्रत्यया आदि पांच क्रियाएं
पांच क्रियाएं कही गई हैं, यथा१. राग भाव से होने वाली क्रिया, २. द्वेष भाव से होने वाली क्रिया ३. मन आदि की दुश्चेष्टाओं से होने वाली क्रिया, ४. सामूहिक रूप से होने वाली क्रिया, ५. गमनागमन से होने वाली क्रिया। ये पांचों क्रियाएं मनुष्यों में होती हैं, शेष दण्डकों में नहीं
होती हैं। २३. जीव-चौबीस दंडकों में जीवादिकों की अपेक्षा प्राणातिपातिकी
आदि क्रियाओं का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव प्राणातिपातिकीक्रिया करते हैं ? उ. हां, गौतम ! करते हैं। प्र. भंते ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? उ. गौतम ! स्पृष्ट की जाती है अस्पृष्ट नहीं की जाती यावत्
व्याघात न हो तो छहों दिशाओं को और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं को स्पर्श करके की
जाती है। प्र. भंते ! वह क्रिया कृत है या अकृत है? उ. गौतम ! वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं है। प्र. भंते ! वह क्रिया आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत है?
उ. गौतम ! वह क्रिया आत्मकृत है, किन्तु परकृत या उभयकृत
नहीं है। प्र. भंते ! वह क्रिया आनुपूर्वी कृत है या अनानुपूर्वीकृत है?
प. सा भंते ! किं कडा कज्जइ? अकडा कज्जइ? उ. गोयमा ! कडा कज्जइ, नो अकडा कज्जइ। प. सा भंते ! किं अत्तकडा कज्जइ? परकडा कज्जइ?
तदुभयकडा कज्जइ? उ. गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, णो परकडा कज्जइ, णो
तदुभयकडा कज्जइ। प. सा भंते ! किं आणुपुब्बिकडा कज्जइ ? अणाणुपुस्विकडा
कज्जइ? उ. गोयमा ! आणुपुव्विकडा कज्जइ, नो अणाणुपुव्विकडा
कज्जइ, जा य कडा, जा य कज्जइ, जा य कज्जिस्सइ सव्वा सा आणुपुब्बिकडा, नो अणाणुपुव्विकडत्ति वत्तव्वं सिया। एवं जाव वेमाणियाणं णवरं-जीवाणं एगिंदियाण य निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं, सेसाणं नियम छद्दिसिं।
उ. गौतम ! वह अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रम के नहीं
की जाती है। जो क्रिया की गई है, जो क्रिया की जा रही है या जो क्रिया की जाएगी, वह सब अनुक्रमपूर्वक कृत है, किन्तु अननुक्रम कृत नहीं है ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-(सामान्य) जीव और एकेन्द्रिय निर्व्याघात की अपेक्षा छह दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार और पांच दिशाओं से स्पृष्ट क्रिया करते हैं। शेष सभी जीव नियमतः छहों दिशाओं से स्पृष्ट क्रिया
करते हैं। प्र. भंते ! क्या जीव मृषावाद-क्रिया करते हैं?
प. अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ?