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२६. लेस्सज्झयणं
सूत्र
१. लेस्सज्झयणस्स उक्खेवो
लेसज्झयणं पयक्खामि, आणुपुब्विं जहक्क । छह पि कम्मलेसाणं, अणुभावे सुणेह मे ॥
नामाई वण्ण-रस- गन्ध- फास-परिणाम- लक्खणं । ठाणं ठिई गई चार्ड लेसाणं तु सुणेह मे ॥१
२. छव्विहाओ लेस्साओ
-उत्त. अ. ३४, गा. १-२
प. कइ णं भन्ते लेस्साओ पण्णत्ताओ ?
उ. गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. कण्हलेस्सा, २ . णीललेस्सा, ४. सेउलेस्सा, ५. पहलेस्सा,
३. काउलेस्सा, ६. सुक्कलेस्सा
- पण्ण. प. १७, उ. २, सु. ११५६
३. दव्य-भावलेस्साणं सर्वप. कण्हलेस्सा णं भन्ते ! कइवण्णा जाव कइफासा पण्णत्ता ?
उ. गोयमा ! १ दव्वलेस पडुच्च-पंचवण्णा, पंच रसा, दुगंधा, अट्ठ फासा पण्णत्ता,
२. भावलेसं पडुच्च - अवण्णा, अरसा, अगंधा, अफासा पण्णत्ता ।
एवं जाय सुक्कलेस्सा पिया. स. १२.उ.५. सु. २८-२९ ४. लेसाणं लक्खणाई
१. पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओ य । तिव्वारम्भपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो ॥
निहंसपरिणामो निस्संसो अजिइन्दिओ । एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे ॥
२. इस्सा - अमरिस अतयो, अविज्ज-माया अहीरिया य गेही पओसे य सढे पत्ते, रसलोलुए सायगवेसए य ॥
आरम्भाओ अविरओ, खुद्द साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ॥
१. उत्तराध्ययन के लेश्या अध्ययन में इस गाथानुसार वर्णादि का क्रम से वर्णन है किन्तु विभिन्न आगमों के लेश्या संबंधी पाठों का संकलन करने के लिये यहाँ भिन्न क्रम से पाठों को रखा गया है।
(ख) ठाणं. अ. ६, सु. ५०४
(ग) पण्ण. १७, उ. ४, सु. १२१९
२. (क) किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य
सुक्कलेसा य छट्ठा उ, नामाई तु जहक्कमं ॥
-उत्त. अ. ३४, गा. ३
२६. लेश्या - अध्ययन
सूत्र
१. लेश्या - अध्ययन की उत्थानिका
मैं यथाक्रम - आनुपूर्वी से लेश्या - अध्ययन का निरूपण करूँगा । ( सर्वप्रथम ) कर्मों की विधायक छों लेश्याओं के अनुभाव (रसविशेष के विषय में मुझसे सुनो।
द्रव्यानुयोग - (२)
इन लेश्याओं का वर्णन नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का बन्ध इन द्वारों के माध्यम से मुझसे सुनो।
२. छ प्रकार की लेश्याएँ
प्र. भन्ते ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! छः लेश्याएँ कही गई हैं, यथा-
उ.
१. कृष्णलेश्या
२. नीललेश्या, ५. पद्मलेश्या,
४. तेजोलेश्या
३. द्रव्य-भाव लेश्याओं का स्वरूप
प्र. भन्ते कृष्णलेश्या में कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श कहे गये हैं ?
३. कापोतलेश्या, ६. शुक्ललेश्या ।
पाँच
उ. गौतम ! १. द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से उसमें पाँच वर्ण, रस, दो गंध और आठ स्पर्श कहे गये हैं,
२. भावलेश्या की अपेक्षा से वह वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रहित है।
इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक कहना चाहिए।
४. लेश्याओं के लक्षण
१. जो मनुष्य पाँच आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों से अगुप्त है, षट्कायिक जीवों के प्रति अविरत है, तीव्र आरम्भ में परिणत है, क्षुद्र एवं साहसी है।
निःशंक परिणाम वाला है, नृशंस है, अजितेन्द्रिय है, इन योगों से युक्त वह जीव कृष्णलेश्या में परिणत होता है।
२. जो ईर्ष्या है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायी है, निर्लज्ज है, विषयासक्त है, प्रद्वेषी है पूर्त है, प्रमादी है, रसलोलुप है, सुख का गवेषक है।
(घ) पण्ण. प. १७, उ. ५, सु. १२५०
(ङ) पण्ण. प. १७, उ. ६, सु. १२५६ (च) विया. स. १, उ. २, सु. १३ (छ) विया. स. २५, उ. १, सु. ३ (ज) सम सम ६, सु. १
जो आरम्भ से अविरत है, शुद्र है, दुःसाहसी है इन योगों से युक्त जीव नीललेश्या में परिणत होता है।
(झ) आव. अ. ४, सु. ६ (ञ) सम. सु. १५३ (३)