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लेश्या अध्ययन
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३. वक वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए।
पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए॥
उप्फालग-दुट्ठवाई य, तेणे यावि य मच्छरी। एयजोगसमाउत्तो, काउलेसं तु परिणमे ।।
४. नीयावित्ती अचवले,अमाई अकुऊहले।
विणीयविणए दन्ते, जोगवं उवहाणवं॥
पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरु हिएसए।
एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे । ५. पयणुक्कोह-माणे य, माया लोभे य पयणुए।
पसन्तचित्ते दन्तप्पा, जोगवं उवहाणवं॥
३. जो मनुष्य वाणी से वक्र है, आचार से वक्र है, कपटी है,
सरलता से रहित है, स्वदोषों को छिपाने वाला है, छल-छय का प्रयोग करने वाला है, मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है। जो मुँह में आया वैसा दुर्वचन बोलने वाला है, दुष्टवादी है, चोर है, ईर्ष्या करने वाला है, इन योगों से युक्त जीव
कापोतलेश्या में परिणत होता है। ४. जो नम्र वृत्ति का है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहली
है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, स्वाध्यायादि से समाधिसम्पन्न है, शास्त्राध्ययन के समय विहित तपस्या का कर्ता है। जो प्रियधर्मी है, दृढ़धर्मी है, पापभीरु है, हितैषी है इन योगों से युक्त जीव तेजोलेश्या में परिणत होता है। जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त है, आत्मा का दमन करता है, योगवान् तथा उपधानवान् है। जो अल्पभाषी है, उपशान्त है और जितेन्द्रिय है इन योगों से युक्त जीव पद्मलेश्या में परिणत होता है। जो आर्त और रौद्र ध्यानों का त्याग करके धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, प्रशान्तचित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है। सरागी (गृहस्थ) या वीतरागी (श्रमण) है। किन्तु उपशान्त और जितेन्द्रिय है इन योगों से युक्त जीव शुक्ललेश्या में
परिणत होता है। ५. दुर्गतिसुगतिगामिनी लेश्याएँ
तीन लेश्याएँ-दुर्गतिगामिनी, संक्लिष्ट, अमनोज्ञ, अविशुद्ध, अप्रशस्त और शीत-रुक्ष स्पर्श वाली कही गई है, यथा
तहा पयणुवाई य, उवसन्ते जिइन्दिए। एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसंतु परिणमे॥ अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दन्तप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं॥
१. कृष्णलेश्या, २.नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या। तीन लेश्याएँ-सुगतिगामिनी, असंक्लिष्ट, मनोज्ञ, विशुद्ध, प्रशस्त
और स्निग्ध-उष्ण स्पर्श वाली कही गई हैं, यथा१. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या, ३. शुक्ललेश्या।
सरागे वीयरागे वा, उवसन्ते जिइन्दिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ॥
-उत्त. अ.३४,गा.२१-३२ ५. दुग्गइसुगइगामिणी लेस्साओतओ लेसाओ-दोग्गइगामिणीओ, संकिलिट्ठाओ, अमणुण्णाओ, अविसुद्धओ, अप्पसत्थाओ सीतलुक्खाओ पण्णत्ताओ,तं जहा१.कण्हलेसा, २.णीललेसा, ३.काउलेसा। तओ लेसाओ-सोगइगामिणीओ,असंकिलिट्ठाओ, मणुण्णाओ, विसुद्धाओ, पसत्थाओ,णिझुण्हाओ,पण्णत्ताओ,तं जहा१.तेउलेसा, २. पम्हलेसा, ३.सुक्कलेसा।
-ठाणं अ.३, उ.४,सु.२२१ ६. लेस्साणं गरुयत्तं लहुयत्तं
प. कण्हलेस्सा णं भंते ! किं गरुया, लहुया, गरुयलहुया __ अगरुयलहुया? उ. गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुया वि,
अगरुयलहुया वि। प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ
"कण्हलेस्सा णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुआ वि,
अगरुयलहुया वि?" उ. गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च-ततियपदेणं (गरुयलहुया),
भावलेस्सं पडुच्च-चउत्थ पदेणं (अगरुयलहुया)। से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"णो लहुया, णो गरुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया
वि।" १. (क) पण्ण.प.१७,उ.४,सु. १२४१
६. लेश्याओं का गुरुत्व लघुत्वप्र. भंते ! कृष्णलेश्या क्या गुरु है, लघु है, गुरुलघु है या
अगुरुलघु है? उ. गौतम ! कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है किन्तु गुरुलघु है
और अगुरुलघु भी है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है किन्तु गुरुलघु भी है और
अगुरुलघु भी है।" उ. गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा-तृतीय पद (गुरुलघु) है,
भावलेश्या की अपेक्षा-चौथा पद (अगुरुलघु) है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है किन्तु गुरुलघु भी है और
अगुरुलघु भी है।" (ख) उत्त.अ.३४,गा.५६-५७