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लेश्या अध्ययन'
६. खज्जूर- मुद्दियरसो, खीररसो खण्ड- सक्कररसो वा । एतो वि अणन्तगुणो, रसो उ सुकाए नायव्यो ।
-उत्त. अ. ३४, गा. १0-१५
११. लेस्साणं फासा
जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए व सागपत्ताणं । एत्तो वि अणन्तगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥
जह बूरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एतो वि अणन्तगुणो, पसत्यलेसाण तिण्डं पि ॥
१२. लेस्साणं परसा
- उत्त. अ. ३४, गा. १८-१९
प. कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसिया पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! अणतपएसिया पण्णत्ता ।
एवं जाव सुक्कलेस्सा।
१३. लेस्साणं पएसोगाढत्तं
प. कण्हलेस्सा णं भंते! कइपएसोगाढा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढा पण्णत्ता। एवं जाव सुक्कलेस्सा।
- पण्ण. प. १७, उ. ४, सु. १२४३
- पण्ण. प. १७, उ. ४, सु. १२४४
१४. लेस्साणं वग्गणा
प. कण्हलेस्साए णं भंते! केवइयाओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ ? उ. गोयमा ! अणंताओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ।
एवं जाव सुक्कलेस्साए । - पण्ण. प. १७, उ. ४, सु. १२४५ १५. सलेस्स- अलेस्स जीवाण आरंभाइ परूवणं
प. सलेस्साणं भंते ! जीवा किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा ?
उ. गोयमा ! अत्थेगइया सलेसा जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि तदुभयारंभा वि नो अणारंभा
"
"
अत्येगइया सलेसा जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ।
प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"अत्थेगइया सलेसा जीवा आयारंभा वि जाव अणारंभा वि" ।
उ. गोयमा ! सलेसा जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा
१. संसारसमावन्नगा य, २. असंसारसमावन्नगा य। १. तत्य णं जे ते असंसार समावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं नो आयारंभा जाय अणारंभा
२. तत्य णं जे ते संसार समवन्नगा ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा१. संजया य, २. असंजया य तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा
१. पमत्त संजया य, २. अपमत्त संजया य ।
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६. खजूर और द्राक्षा का रस, खीर का रस अथवा खाँड़ या शक्कर का रस जितना मधुर होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक मधुर शुक्ललेश्या का रस जानना चाहिए।
११. लेश्याओं के स्पर्श
करवत (करौत), गाय की जीभ और शाक नामक वनस्पति के पत्तों का जैसा कर्कश स्पर्श होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त (कृष्ण, नील, कापोत) लेश्याओं का होता है।
जैसे दूर नवनीत या शिरीप के पुष्पों का कोमल स्पर्श होता है. उससे भी अनन्तगुणा अधिक कोमल स्पर्श तीनों प्रशस्त (तेउ, पद्म, शुक्ल) लेश्याओं का होता है।
१२. लेश्याओं के प्रदेश
प्र. भंते! कृष्णलेश्या कितने प्रदेश वाली कही गई है ? उ. गौतम ! अनन्त प्रदेशों वाली कही गई है।
इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक कहना चाहिये ।
१३. लेश्याओं का प्रदेशावगाढत्व
प्र. भंते! कृष्णलेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में स्थित है ?
उ. गौतम ! असंख्यात आकाश प्रदेशों में स्थित है।
इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक कहना चाहिये।
१४. लेश्याओं की वर्गणा
प्र. भंते! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएँ कही गई है? उ. गौतम ! अनन्त वर्गणाएँ कही गई हैं।
इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक कहना चाहिए।
१५. सलेश्य - अलेश्य जीवों के आरंभादि का प्ररूपण
प्र. भंते ! लेश्या वाले जीव आत्मारंभी हैं, परारम्भी है, तदुभारंभी हैं या अनारम्भी है?
उ. गौतम ! कितने ही सलेश्यी जीव आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं और तदुभयारंभी भी हैं किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। कितने ही सलेश्यी जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं और तदुभारम्भ भी नहीं हैं किन्तु अनारम्भी हैं। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"सलेश्यी जीव आत्मारंभी भी हैं यावत् अनारम्भी भी है।"
उ. गौतम ! सलेश्यी जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. संसार समापन्नक, २. असंसार समापन्नक। १. उनमें से जो असंसार समापन्नक हैं वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान आत्मारंभी नहीं हैं यावत् अनारंभी हैं।
२. उनमें से जो संसार समापन्नक हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा
१. संयत, २. असंयत । उनमें से जो संयत हैं वे भी दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. प्रमत्त संयत, २. अप्रमत्त संयत ।