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उ. गोयमा ! ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा
१. माइमिच्छद्दिट्ठीउववण्णगा य, २. अमाइसम्मट्ठीउववण्णगा य।
१. तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिट्ठिी उववण्णगा ते णं अप्पवेयणतरागा ।
२. तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठिी उववण्णगा ते णं महावेयणतरागा।
से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ
"सलेस्सा जोइसिया वेमाणिया णो सव्वे समवेयणा ।" - पण्ण. प. १७, उ. १, सु. ११४५ चउबीसवंडएस
समाहाराइ
२२. कण्हादिलेस्साइविसिट्ठ
सत्तदारा
प. दं. १ कण्हलेस्सा णं भंते! गेरइया सव्वे समाहारा सब्बे समसरीरा, सव्वे समुस्सास णिस्सासा ?
उ. गोयमा जहा ओहिया तहा भाणियख्या
नवरं वेयणाए माइमिच्छदिठि उववण्णगाव, अमाई सम्मदिट्टी उवण्णगाव भाणियव्या
सेसं तहेव जहा ओहियाणं
दं. २-२२ असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एए जहा ओडिया,
नवरं कण्हलेस्सा णं मणूसाणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्य णं जे ते सम्मविट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा
१. संजया, २. असंजया, ३. संजयासंजया य जहा ओहियाण
६. २३-२४ जोइसिय वेमाणिया आइल्लिगासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिज्जति ।
एवं जहा कण्हलेस्सा वि चारिया तहा णीललेसा वि चारियव्या
काउलेस्सा रइएहितो आरम्भ जाव वाणमंतरा नवरं - काउलेस्सा गैरइया बेयणाए जहा सलेस्सा तहेव भाणियव्या
तेउलेस्साणं असुरकुमाराणं आहाराइ सत्तदारा जहेव सलेस्सा तहेव भाणियव्वा ।
वरं - वेयणाए जहा जोइसिया तहेव भाणियव्वा
तेउलेस्सा पुढवि आउ वणस्सइ पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा जहा सलेस्सा तहेव भाणियव्वा ।
वरं - मणूसा किरियाहिं णाणत्तं - "जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा सरागा वीयरागा णत्थि । १
१. मणुस्सा सरागा वीयरागा न भाणियव्वा
द्रव्यानुयोग - (२)
उ. गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा
१. मायी- मिथ्यादृष्टि उपपन्नक,
२. अमायी- सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक
१. उनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्प वेदना वाले हैं।
२. उनमें से जो अमायी सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं,
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"सभी सलेश्य ज्योतिष्क और वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं।"
२२. कृष्णादि लेश्या विशिष्ट चौबीस दंडकों में समाहारादि सात
द्वार
प्र. भंते ! क्या सभी कृष्णलेश्या वाले नैरयिक समान आहार वाले हैं, सभी समान शरीर वाले हैं, तथा समान उच्छ्वास निःश्वास वाले हैं?
उ. गौतम ! जैसे सलेश्य नैरयिकों के सात द्वार कहे वैसे ही कहने चाहिये।
विशेष- वेदना द्वार में मायीमिध्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्त्रक कहने चाहिये।
शेष कथन पूर्ववत् औधिक के समान कहना चाहिए।
दं. २ २२ असुरकुमारों से वाणव्यन्तर तक के सात द्वार औधिक के समान कहने चाहिये।
विशेष- कृष्णलेश्या वाले मनुष्यों में क्रियाओं की अपेक्षा कुछ भिन्नता है यावत् उनमें जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य हैं वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा
१. संयत, २. असंयत,
• संयतासंयत । ३. क्रिया के लिए शेष कथन औधिक के समान है।
दं. २३-२४ ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में प्रारम्भ की तीन लेश्याओं के प्रश्न नहीं करना चाहिए।
जैसे कृष्णलेश्या वालों का कथन किया गया है, उसी प्रकार नीलेश्या वालों का भी कथन करना चाहिए। कापोतलेश्या नैरयिकों से बाणव्यन्तरों पर्यन्त पाई जाती है। विशेष- कापोतलेश्या वाले नैरयिकों की वेदना के लिए सलेश्य नैरयिकों की वेदना के समान कहना चाहिये।
तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों के आहारादि सात द्वार सलेश्या वाले के समान कहने चाहिये।
विशेष- वेदना के विषय में जैसे ज्योतिष्कों का कहा है, उसी प्रकार यहां भी कहनी चाहिए।
तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक अपकाधिक वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों का कथन सतेश्यों के समान कहना चाहिए।
-विया. स. १, उ. २, सु. १२
विशेष-तेजोलेश्या वाले मनुष्यों की क्रियाओं में मित्रता है जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के कहने चाहिए और सराग संयत और वीतराग संयत नहीं होते हैं।