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प. से णूणं भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए
जावणो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ?
उ. हंता, गोयमा ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए
जावणो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ।
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ___ "सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो
ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ ?" उ. गोयमा ! आगारभावमायाए से सिया
पलिभागभावमायाए वा से सिया, सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गया उस्सक्कइ वा ओसक्कइ वा। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ।"
__ -पण्ण.प. १७, उ.५, सु. १२५२-१२५५ २६. चउवीस दंडएसु लेस्साणं तिविह बंध परूवणंप. कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए णं भंते ! कइविहे बंधे
पण्णत्ते? उ. गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते,तं जहा
१. जीवप्पयोगबंधे, २. अणंतरबंधे, ३.परंपरबंधे। दं.१-२४ सव्वे ते चउवीस दंडगा भाणियव्वा,
द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! क्या शुक्ललेश्या पदुमलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप
में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं
होती है? उ. हां, गौतम ! शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसी के
वर्ण यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं
होती है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत्
उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है? उ. गौतम ! वह कदाचित् आकारभावमात्रा से अथवा
प्रतिभागभावमात्रा से शुक्ललेश्या ही है, वह पद्मलेश्या नहीं हो जाती है। वह वहां रही हुई घटती-बढ़ती नहीं है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"शुक्ललेश्या पदुमलेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में यावत् उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत नहीं होती है।"
२६. लेश्याओं का त्रिविध बंध और चौवीस दंडकों में प्ररूपणप्र. भंते ! कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या का बन्ध कितने प्रकार
का कहा गया है? उ. गौतम ! तीन प्रकार का बन्ध कहा गया है, यथा
१.जीवप्रयोगबन्ध, २. अनन्तरबन्ध, ३. परम्परबन्ध। दं. १२४ इन सभी का चौवीस दण्डकों में कथन करना चाहिए। विशेष-जिसके जो (बंध प्रकार) हो, वही जानना चाहिए।
णवरं-जाणियव्वं जस्स जं अत्थि।
-विया.स.२०, उ.७, सु.१९-२१ २७. सलेस्सेसु चउवीस दंडएसु उववज्जणं
प. द.१.जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से __ णं भंते ! किं लेसेसु उववज्जइ? उ. गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परिआइत्ता कालं करेइ
तल्लेसेसु उववज्जइ,तं जहाकण्हलेसेसुवा, नीललेसेसुवा, काऊलेसेसुवा,
एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियव्वा,
दं.२-२२ एवं जाव वाणमंतराणं। प. दं.२३.जीवेणं भंते !जे भविए जोइसिएसु उववज्जित्तए
से णं भंते ! किं लेसेसु उववज्जइ? उ. गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परिआइत्ता कालं करेइ
तल्लेसेसु उववज्जइ,
तं जहा-तेऊलेस्सेसु। प. दं. २४. जीवे णं भंते ! जे भविए वेमाणिएसु
उववज्जित्तए से णं भंते ! किं लेसेसु उववज्जइ? उ. गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परिआइत्ता कालं करेइ
तल्लेसेसु उववज्जइ,
२७. सलेश्यी चौवीसदंडकों की उत्पत्तिप्र. दं. १. भंते ! जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह
कितनी लेश्याओं में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल
करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, यथाकृष्णलेश्या वालों में, नीललेश्या वालों में या कापोतलेश्या वालों में, इसी प्रकार जिसकी जो लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए. दं.२-२२ इसी प्रकार वाणव्यन्तरों पर्यन्त कहना चाहिये। प्र. दं.२३. भंते ! जो जीव ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने योग्य है, वह
किस लेश्या में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल
करता है, उसी लेश्या वाले ज्योतिष्कों में उत्पन्न होता है, यथा
तेजोलेश्या वालों में। प्र. दं.२४. भंते ! जो जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य है,
वह किन लेश्याओं में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव
काल करता है, उसी लेश्या वाले वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है,