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लेश्या अध्ययन
जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टइ।
एवं णीललेसे वि, काउलेसे वि। दं.२-११ एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि।
णवर-तेउलेस्सा अब्भइया। प. दं.१२.से नूणं भंते ! कण्हलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु
पुढविकाइएसु उववज्जइ? कण्हलेस्से उव्वट्टइ?
जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टइ?
उ. हंता, गोयमा ! कण्हलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु
पुढविक्काइएसु उववज्जइ, सिय कण्हलेस्से उव्वट्टइ,
सिय नीललेसे उव्वट्टइ, सिय काउलेसे उव्वट्टइ, सिय जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टइ।
एवं णीललेस्सा काउलेस्सा वि।
प. से नूणं भंते ! तेउलेस्से पुढविक्काइए तेउल्लेस्सेसु
पुढविक्काइएसु उववज्जइ? तेउलेस्से उव्वट्टइ? जल्लेसे उव्वज्जइ तल्लेसे उव्वट्टइ?
- ८७१ ) जिस लेश्या में उत्पन्न होता है-उसी लेश्या में उद्वर्तन करता है। इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी भी समझना चाहिए। द.२-११. इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त (उत्पाद और उद्वर्तन का) कथन करना चाहिए।
विशेष-तेजोलेश्या का कथन अधिक करना चाहिए। प्र. दं. १२. भंते ! वास्तव में क्या कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिक
कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? क्या कृष्णलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है? जिस लेश्या में उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या में उद्वर्तन
करता है? उ. हां, गौतम ! कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्यी
पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, कदाचित् कृष्णलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है। कदाचित् नीललेश्यी होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है। कदाचित् जिस लेश्या में उत्पन्न होता है, उसी लेश्या में उद्वर्तन करता है। इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या वालों में भी (उत्पाद
और उद्वर्तन का) कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! वास्तव में क्या तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक तेजोलेश्यी
पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? क्या तेजोलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है? जिस लेश्या में उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या में उद्वर्तन
करता है? उ. हां, गौतम ! तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक तेजोलेश्यी
पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, कदाचित् कृष्णलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है। कदाचित् नीललेश्यी होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्तन करता है, तेजोलेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, किन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन नहीं करता है। दं. १३, १६ इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों (के उत्पाद और उद्वर्तन) का कथन करना चाहिए। दं.१४-१५ इसी प्रकार तेजस्कायिकों और वायुकायिकों (के भी उत्पाद और उद्वर्तन) का कथन करना चाहिए। विशेष-इनमें तेजोलेश्या नहीं होती है। दं. १७-१९ इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों का भी तीनों लेश्याओं में (उत्पाद-उद्वर्तन) जानना चाहिए। दं. २०-२१ पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों का कथन जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों के प्रारम्भ की तीन लेश्याओं में कहा है उसी प्रकार छहों लेश्याओं में भी कथन करना चाहिये। विशेष-छहों लेश्याओं का क्रम बदलना चाहिए। दं.२२ वाणव्यन्तरों का (उत्पाद और उद्वर्तन) असुरकुमारों के समान जानना चाहिए।
उ. हता, गोयमा ! तेउलेस्से पुढविक्काइए तेउलेस्सेसु
पुढविक्काइएसु उववज्जइ, सिय कण्हलेसे उव्वट्टइ, सिय णीललेसे उव्वट्टइ, सिय काउलेसे उव्वट्टइ, तेउलेसे उववज्जइ, णो चेवणं तेउलेस्से उव्वट्टइ।
दं.१३,१६.एवं आउक्काइए वणस्सइकाइया वि।
दं.१४,१५,तेऊ वाऊ एवं चेय।
णवरं-एएसिं तेउलेस्सा णस्थि। दं. १७-१९. बिय-तिय-चउरिदिया एवं चेव तिसु लेसासु। दं. २०-२१ पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य जहा पुढविक्काइया आइल्लियासु तिसु लेस्सासु भणिया तहा छसुवि लेसासुभाणियव्या। णवर-छप्पिलेस्साओ चारियव्वाओ। २२. वाणमंतरा जहा असुरकुमारा।