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लेश्या अध्ययन
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उसी के स्पर्श रूप में पुनः पुनः परिणत होती है, इसे लेश्यागति कहते हैं। यह लेश्यागति होने पर कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर भी कदाचित्
आकार भावमात्रा से अथवा प्रतिभाग भावमात्रा से कृष्णलेश्या ही है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती है। इसी प्रकार सभी लेश्याओं के सम्बन्ध में कथन है। लेश्यागति अशुभ लेश्याओं से शुभ लेश्याओं में तो होती ही है किन्तु शुभ लेश्याओं से अशुभ लेश्याओं में भी होती है। शुक्ललेश्यादि का परिणमन पद्मलेश्या, तेजोलेश्या आदि में सम्भव है किन्तु आकार, भावमात्रा एवं प्रतिभाग भावमात्रा की अपेक्षा परिणमन नहीं होता है।
बन्ध के सामान्य भेदों की भाँति लेश्या का बन्ध तीन प्रकार का होता है- १. जीव प्रयोग बन्ध, २. अनन्तर बन्ध, ३. परम्पर बन्ध ।
जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। शुक्ललेश्या वाला संक्लेश को प्राप्त होकर कृष्णलेश्या वाला बन जाता है तथा कृष्णलेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार जो जीव जिस लेश्या में काल करता है वह उसी लेश्या वाले जीवों में जन्म लेता है। जिस लेश्या में जीव उत्पन्न होता है कदाचित् उसी लेश्या में उद्वर्तन करता है किन्तु तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक आदि कुछ जीव कदाचित् कृष्णलेश्यी होकर उद्वर्तन (मरण) करते हैं, कदाचित् नीललेश्यी होकर उद्वर्तन करते हैं, कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्यर्तन करते हैं। लेश्या परिणत होने के प्रथम समय में जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता है, अपितु लेश्या के परिणत होने पर जब अन्तर्मुहूर्त्त व्यतीत हो जाता है और अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब जीव परलोक में जाता है।
श्याओं की अपेक्षा गर्भ प्रजनन का वर्णन महत्वपूर्ण है जो मनुष्य एवं स्त्री तथा उनके गर्भ से सम्बद्ध है। इसके अनुसार मनुष्य एवं स्त्री अपने सदृश तथा अपने से भिन्न देश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करते हैं। स्थिति की अपेक्षा कृष्णलेश्या वाले जीव से नीललेश्या वाला जीव कदाचित् महाकर्म वाला होता है। इसी प्रकार नीललेश्या से कापोतलेश्या वाला जीव, कापोत से तेजोलेश्या वाला, तेजो से पद्मलेश्या वाला, पद्म से शुक्ल- लेश्या वाला जीव स्थिति की अपेक्षा कदाचित महाकर्म वाला होता है।
कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, कापोतलेश्यी, तेजोलेश्यी व पद्मलेश्यी जीवों में दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं। दो होने पर आभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान होते हैं, तीन होने पर अवधिज्ञान या मनः पर्यवज्ञान विशेष होते हैं। चार होने पर ये सभी पाए जाते हैं। शुक्ललेश्या वाले जीव में दो, तीन, चार या एक ज्ञान होते हैं। चार तक तो पूर्ववत् हैं किन्तु एक ज्ञान मानने पर मात्र केवल ज्ञान होता है। कृष्णलेश्यी की अपेक्षा नीललेश्यी नारक का अवधिज्ञान स्पष्ट होता है एवं अधिक क्षेत्र को विषय करता है। इसी प्रकार नीललेश्यी से कापोतलेश्यी नारक का अवधिज्ञान अधिक स्पष्ट एवं अधिक क्षेत्र को विषय करता है।
प्रस्तुत अध्ययन में लेश्याओं की जघन्य- उत्कृष्ट स्थिति, सलेश्य- अलेश्य जीवों की कायस्थिति, सलेश्य- अलेश्य जीवों के अन्तरकाल, सलेश्य- अलेश्य जीवों के चार गतियों में अल्प- बहुत्व, सलेश्य जीवों की ऋद्धि के अल्प- बहुत्व, लेश्या के स्थानों में अल्प- बहुत्व आदि पर भी विस्तृत निरूपण हुआ है। गुणस्थान की दृष्टि से लेश्या पर विचार इस अध्ययन में नहीं हुआ। अन्यत्र प्राप्त उल्लेख के अनुसार पहले से छठे गुण स्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं। सातवें गुण. स्थान में तेजो, पद्म व शुक्ललेश्याएँ होती हैं जबकि आठवें से तेरहवें गुण स्थान तक मात्र शुक्ललेश्या होती है।
इस अध्ययन का प्रयोजन अप्रशस्त से प्रशस्त लेश्याओं की ओर गति कराना है।