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६. पडिसेवणा-दारंप. (१) सामाइयसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा,
अपडिसेवए होज्जा? उ. गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होज्जा। प. जइ पडिसेवए होज्जा किं मूलगुण-पडिसेवए होज्जा,
उत्तरगुण-पडिसेवए होज्जा? उ. गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा, उत्तरगुण
पडिसेवए वा होज्जा, मूलगुणपडिसेवमाणे-पंचण्हं आसवाणं अण्णयरं पडिसेवेज्जा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे-दसविहस्स-पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा।
(२) एवं छेदोवट्ठावणिए वि। प. (३) परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए
होज्जा, अपडिसेवए होज्जा? उ. गोयमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा।
(४-५) सुहुमसंपरायसंजए, अहक्खायसंजए वि एवं चेव।
द्रव्यानुयोग-(२) ६. प्रतिसेवना-द्वारप्र. (१) भन्ते ! सामायिक संयत क्या प्रतिसेवक होता है या
अप्रतिसेवक होता है? उ. गौतम ! प्रतिसेवक भी होता है और अप्रतिसेवक भी होता है। प्र. यदि प्रतिसेवक होता है तो क्या-मूलगुण प्रतिसेवक होता है या
उत्तरगुण प्रतिसेवक होता है? उ. गौतम ! मूलगुण प्रतिसेवक भी होता है और उत्तरगुण
प्रतिसेवक भी होता है। मूलगुण का प्रतिसेवन करता हुआ-पांच आश्रवों में से किसी आश्रव का प्रतिसेवन करता है। उत्तरगुण का प्रतिसेवन करता हुआ-दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी प्रत्याख्यान का दोष लगाता है।
(२) इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी जानना चाहिए। प्र. (३) भन्ते ! परिहारविशुद्धिक संयत क्या प्रतिसेवक होता है
या अप्रतिसेवक होता है? उ. गौतम ! प्रतिसेवक नहीं होता है, अप्रतिसेवक होता है।
४-५ सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात संयत भी इसी प्रकार
जानना चाहिए। ७. ज्ञान-द्वारप्र. (१) भन्ते ! सामायिक संयत को कितने ज्ञान होते हैं ? उ. गौतम ! दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं।
दो हों तो-१.आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुत-ज्ञान,
७. णाण-दारंप. (१) सामाइयसंजए णं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा? उ. गोयमा ! दोसु वा, तिसुवा, चउसु वा णाणेसु होज्जा।
दोसु होमाणे-दोसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाणेसु होज्जा। तिसु होमाणे-तिसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाण
ओहिणाणेसु होज्जा, अहवा-तिसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे-चउसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाण -ओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा, (२-४) एवं जाव सुहुमसंपराए अहक्खायसंजयस्स वि एवं चेव। णवरं-एगम्मि वि होज्जा,
एगम्मि होमाणे-केवलणाणेसु होज्जा। प. सामाइयसंजए णं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा ?
तीन हों तो-१.आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान। अथवा-१.आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. मनःपर्यवज्ञान। चार हों तो-१.आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यवज्ञान। (२-४) इसी प्रकार सूक्ष्म संपराय पर्यन्त जानना चाहिए। यथाख्यात संयत का कथन भी इसी प्रकार है, विशेष-उसे एक ज्ञान भी होता है,
एक हो तो केवलज्ञान होता है। प्र. (१) भन्ते ! सामायिक संयत कितने श्रुत का अध्ययन
करता है? उ. गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन माता का,
उत्कृष्ट चौदह पूर्व का अध्ययन करता है।
(२) इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी जानना चाहिए। प्र. (३) भन्ते ! परिहारविशुद्धिक संयत का श्रुत अध्ययन कितना
होता है? उ. गौतम ! जघन्य नवमे पूर्व की तृतीय आचार वस्तु पर्यन्त,
उत्कृष्ट कुछ अपूर्ण दस पूर्व का अध्ययन होता है। (४) सक्ष्मसंपराय संयत सामायिक संयत के समान जानना
चाहिए। प्र. (५) भन्ते ! यथाख्यात संयत का श्रुत-अध्ययन कितना होता है ?
उ. गोयमा ! जहण्णेणं-अट्ठ पवयणमायाओ,
उक्कोसेणं-चोद्दस पुव्वाई अहिज्जेज्जा।
(२) एवं छेदोवट्ठावणिए वि। प. परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! केवइयं सुयं
अहिज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं-नवमस्स पुव्वस्स तइयं आयारवत्थु,
उक्कोसेणं-असंपुण्णाइं दस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा। (४) सुहुमसंपरायसंजए जहा सामाइयसंजए।
प. (५) अहक्खायसंजएणं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा?