________________
७२
आदर्श जीवन।
चारों शरण धारण किये । 'खामेमि सव्वजीवे ' गाथा पढ़कर सबसे क्षमा प्रार्थना की और तब 'अरिहंतो मह देवो' आदि गाथाको पढ़ते हुए पंचपरमेष्ठि नमस्कार मंत्रके ध्यानमें लीन हो गये । ऐसे लीन हुए कि, फिर वह ध्यान न टूटा । उनका जीवनहंस इस भौतिक-औदारिक शरीरका त्यागकर हमेशाके लिए चला गया । अर्थात् सं० १९४७ के चैत्र सुदी १० ता० २१-३-१८९० सोमवारके दिन १०८ श्रीहर्षविजयजी महाराजका स्वर्गवास हो गया। दिल्लीके श्रीसंघने दूसरे दिन यानी चैत्र शुक्ल ११ के दिन बड़ी धूम धामके साथ उनके शरीरका अग्निसंस्कार किया। दिल्लीमें लाल किलेके पास बाजा बजानेकी किसीको इजाजत नहीं है मगर उस दिन इजाजत मिल गई।
जिस समय उनका स्वगवास हुआ उस समय उनके पास मुनि महाराज श्रीहीरविजयजी, मुनिमहाराज श्रीशान्तिविजयजी, मुनिमहाराज श्रीअमरविजयजी, मुनि महाराज श्री माणिकविजयजी, हमारे चरित्रनायक, मुनि श्रीशुभविजयजी तपस्वी, मुनि श्रीमोतीविजयजी, मुनि श्रीलब्धिविजयजी और मुनि श्रीजशविजयजी मौजूद थे।
गुरुवियोगका आपको कितना दुःख हुआ होगा उसे यह लोहेकी लेखनी कैसे बता सकती है ? यह अनुभव करनेकी बात है। हम केवल इतनाही लिख सकते हैं कि, असह्य दुःख हुआ हागो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org