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आदर्श जीवन ।
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के ठंडे पानीसे हलकको गीला नहीं कर सकते थे। नंगे पैर पैदल चलना, धूपमें जलते हुए आगे बढ़ना और प्यास लगने पर किसी वृक्षकी सायामें थोड़ी देर बैठकर गरम पानीसे-जो
आप गाँवमेंसे भरकर चले थे-अपना हलक गीला कर लेना इसके सिवा कोई उपाय नहीं था। साधुचर्याके कठोर बंधनमें बँधे हुए-साधुओंके आचारको पूर्ण रूपसे पालते हुए ऐसी गरमीमें,-जेठकी कड़ी धूपमें-यात्रा करना कितना कठिन काम था उसका वर्णन करनेकी हमारी क्षुद्र लेखनीमें शक्ति नहीं है।
इसी तरह कष्ट सहते और पन्द्रह, बीस कभी इससे भी अधिक माइलका सफर करते आप गुजराँवालाकी तरफ़ चले जा रहे थे । रस्तेमें लोग आपको कहते," गुरुदेव ! आपके पैर छिल गये हैं। लोहू टपकने लग गया है । आप कुछ समयके लिए आराम कीजिए।" तो आप उत्तर देते,-"श्रावकजी! यह तो पौद्गलिक शरीरका धर्म है । वह अपना धर्म पालता है। पाले । मुझे भी अपना धर्म पालना है । जैन धर्मकी लोग अवहेलना कर रहे हैं । मैं कैसे आराम ले सकता हूँ? मुझे उसी दिन आराम मिलेगा जिस दिन मैं गुजराँवाला पहुँचूँगा
और स्वर्गीय गुरु महाराजके वचन सिद्ध कर धर्मकी ध्वजापताका फहराती देगा।" लोग भक्तिभावसे आपके चरण स्पर्श कर साश्रु नयन आपकी ओर देखते हुए मौन हो जाते।
इस स्थितिको देखकर तुलसीदासजीने रामायणमें हनुमा
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