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आदर्श जीवन ।
लगभग आधे पुरुष और ९८ प्रति शतक स्त्रीयाँ तो केवल निरक्षर ही हैं । जहाँ संयमी जीवन व्यतीत करते हुए जैनियोंको दीर्घायु होना चाहिये वहाँ असंयमी जीवनके कारण हमारी औसत आयु केवल २५ वर्षकी ही रह गई है । जहाँ पूर्व कालमें हमारे धनी अपनी लक्ष्मी खर्च I करके आबूके दिलवाड़ेके जैसे मंदिर बनवाते थे वहाँ आज हमारे निकोंका द्रव्य विलास मियतामें खर्च होजाने के कारण अपनी जातिके बालकोंकी शिक्षाके लिये भी नहीं मिलता । कहाँ तक कहा जावे । हमारा नैतिक जीवन दिन दिन बिगड़ता जा रहा है ।
पूज्य वर्य ! इन उपरोक्त त्रुटियोंको दूर करनेके लिये मुनिगणके उपदेश तथा प्रयासकी बहुत आवश्यकता है । मुनिगण अपने चारित्र बलसे शिक्षा प्रचारके लिये, जिससे अन्य सब रोग दूर हो जाते हैं, बहुत कुछ कर सकते हैं । राजपूतानेके घर घरमें शिक्षाका प्रचार करा देना मुनिगणके लिये दुर्लभ नहीं है । जब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि धार्मिक महोत्सवोंके लिये मुनिगणके उपदेशसे हजारों रुपये व्यय हो जाते हैं तो हम ये कल्पना नहीं कर सकते कि शिक्षाप्रचारके लिये जिस पर हमारा धर्म, कर्म और सारा जीवन ही निर्भर है उनके प्रयास निष्फल हों । सत्य तो यह है कि त्यागियोंके उपदेशका प्रभाव अतुलनीय होता है । पूज्य वर्य, यदि मुनिगण इस प्रान्तको आजकलकी
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