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( २२३ ) महाराज जब ढूंढक धर्म छोडकर शुद्ध जैन धर्मोपदेशक; शुद्ध जैनधर्मके धारी हो गये तब उन प्रभाविक महापुरुषके उपदेशसे हजारों स्थानकवासी श्रावक भी शुद्ध जैन धर्मधारी यानी मंदिर मार्गी हो गये थे। उन श्रावकोंमें लाला गंगारामजी भी एक मुख्य थे।
धर्मप्रेम इन्हें बचपनहाँसे था । शुद्ध धर्मकी प्राप्ति कर इनका आत्मा और भी अपने धर्मकी तरफ झुका और दुगने उत्साहके साथ वे अपना धर्म पालने लगे। वे प्रायःहमेशा सामायिक एवं प्रतिक्रमण किया करते थे। प्रभुके दर्शन किये बगैर तो वे कभी अन्नका एक दाना भी मुँहमें नहीं डालते थे । रात्रि भोजनका भी उनके त्याग था। उनके घरके भी-तीन तीन चार चार बरसके बच्चे तक -दर्शन किये बगैर मुँहमें अन्न नहीं डालते हैं।
एक बार उनके पोतेको बुखार हो आया । दिनभर वह कुछ 'न खा सका । रातके करीब दो बजे जब उसका बुखार उतरा तब उसे भूख मालूम हुई । उसने भोजन माँगा । खाना उसके सामने रक्खा गया तब बालक बोला,-" बाबा! ( पिताके पिताको पंजाबमें बाबा कहते हैं ) मैंने आज दर्शन नहीं किये हैं, मुझे पहले मंदिरजी ले चलो।" धर्मप्रेमी लालाजीने बालकको छातीसे लगाया और कहाः- “बेटा ! अभी तो मंदिरजी बंद हैं।” बालक बोला:नहीं मुझे ले चलो।" लालाजी उसे मंदिरजी ले गये । ताला बंद था। बालक निराश हुआ।
जब वापिस घर आये तो उसकी माने बालकको खानेके लिए कहा। बालक बोला:--"मैं दर्शन किये बिना कुछ नहीं खाऊँगा"।
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