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(१६०) मुझे सखेद कहना पड़ता है कि, अनेक ऐसी प्रकृतिवाले होते हैं कि, अगर कोई कुछ पूछने आता है तो उसे अपने माने हुए शास्त्रोंके प्रमाण देकर मनानेका प्रयत्न करते हैं। अगर वह नहीं मानता है तो उसे तुम नास्तिक हो, तुम्हें धर्मपर श्रद्धा नहीं है आदि ऐसे कटु शब्दोंका पान कराते हैं कि, वह फिर कभी उनके पास नहीं आता । इतना ही नहीं वह जहाँ जाता है वहीं उनकी निंदा करता है । मगर उन महाशयोंको यह खयाल नहीं आता कि, अगर वह हमारे माने हुए शास्त्रोंके प्रमाणोंको स्वीकारताही होता तो वह इस तरह उल्टे सीधे हमसे प्रश्न क्यों करता ? और अपने समान शास्त्रोंपर श्रद्धा रखनेवालेको मना दिया तो इसमें बड़ी बात कौनसी हो गई ? सच्ची बड़ाई तो तब है जब श्रद्धाहीन भी समझानेसे और सहवाससे श्रद्धावान बन जाय । ऐसी शक्ति आचार्यश्रीमें थी। इसका उदाहरण मैं ऊपर दे चुका हूँ। वे लोग भी भली प्रकार जानते हैं जिन्हें उनके दर्शनोंका और व्याख्यान श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ___ आचार्यश्रीमें ऐसी कला थी कि, वे सामनेवालेके मान्य शास्त्रोंके अनुसार ही उसे समझा देते थे और अपना सिद्धान्त उसके गले उतार देते थे । वे इस महामूत्रका हमेशा पालन करते थे कि,- सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात् सत्यमाप्रियं ।। (सत्य और प्रिय बोलो । अप्रिय सत्य न बोलो) उनके हृदयपटपर महावीर स्वामीके साथ जो संवाद हुआ था वह बराबर अंकित था। जब गौतमस्वामी भगवान महावीरके पास आये थे तब वे शिष्यकी
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