Book Title: Adarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Granthbhandar Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 788
________________ (२०९) शिष्याः प्रकाशमित पूर्णकलाकमिन्दोः सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥ ४२ ॥ संपूर्णरोगभयभतपिशाचबाधा, देहं विभो न परमार्दति सा कदाचित् । एकाग्रमर्थपरिचिन्तनया त्रिसंध्यं, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।। ४३ ॥ मुक्तालतां तव नुतिं सुगुणां सुवर्णा, नित्यं प्रसादसहितां रहितां कलहैः कण्ठे विचक्षणजनः किल यः करोति तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४४ ॥ -मुनि श्रीविचक्षणविजयनी । गजल ! ( रेखता) विजय वल्लभ सुरीवरका । जिने देखा तिने पाया । हृदय आनंद मनमोदन । आत्म अनुभवरस जाया ॥ वि० ॥ मधुर हैं वस्तुएँ जितनी । इकट्ठी संपसे मिलतीं । समय सम वाणी जो बोले । जगत उसका ही सब होले॥ वि० ॥ शशी वसु निधी शशी वर्षे । मगसर सुदी पंचमी सोमे । ज्ञान-तप-संयमी शोधी, सुरि पद स्थापें जन क्षेमे ॥ वि० ॥ मिलें लवपुरमें आकरके, विविध देशोंके जन सुंदर। अनपम शुभ उत्सवसे, करे आचार्य गुण मंदिर ॥ वि० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828