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( १६१ : तरह न आये थे, वे वादीकी तरह, भगवान महावीरको, इन्द्रजालिया समझ, जीतनेके लिए आये थे । मगर महावीर स्वामीने उन्हें ऐसे मधुर शब्दों द्वारा संबोधन किया और उनके मान्य शास्त्रोद्वारा ही उन्हें समझाया कि, वे तत्काल ही समझ गये । क्या इस बातको हम जानते नहीं हैं ? जानते तो हैं, मगर उसका आशय समझनेमें फर्क रह जाता है। जैसे एकही कूएका पानी सारे बगीचेमें जाता है; मगर जैसा पौदा होता है वैसा ही उस पर पानीका असर होता है; बबूलके पौदेसे काँटोका वृक्ष होता है और आमके पौदेसे आमका वृक्ष । वैसे ही एकसी वाणी भी ग्राहक और पात्रके अनुसार परिणत होती है।
महानुभावो ! स्वर्गीय महाराज साहबकी गंभीरताका एक दूसरा उदाहरण सुना, जो दो उद्देश बाकी रहे हैं उन्हें संक्षेपमें वर्णन कर, मैं अपना भाषण समाप्त करूँगा। ___ जीरे ( पंजाब ) में एक ईसाई आचार्यश्रीके पास आया और उद्धताके साथ बोला:-" तुम अहिंसा अहिंसा चिल्लाकर मांस खानेकी मनाई करते हो; मगर तुम खुद मांसाहारसे कहाँ बचे हुए हो ? "
इस बातको सुन कर साधुओंके हृदयमें दुःख हुआ । श्रावकोंकी त्योरियाँ बदलीं । वे कुछ बोलना चाहते थे, इतनेहीमें आचार्यश्रीने उन्हें रोककर कहा:- भाई उतावले न बनो । गुस्सा न करो ! इसके कहनेसे हम मांसाहारी नहीं बन जाते। यह किस हेतुसे हमें ऐसी बात कह रहा है उस हेतुको समझ लें।" .. आचार्यश्रीकी इस बातको सुनकर आगत ईसाईको बड़ी शर्म आई । उसके दिलने कहा,- तूने बड़ा बुरा किया कि, ऐसे महा
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