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वीतराग ही है । जो क्रोधी, रागी, एवं अन्य किसी विकारसे युक्त है, उसे कोई भी बुद्धिमान ईश्वर नहीं मान सकता । इसलिए जिसमें किसी प्रकारकी भी सांसारिक उपाधि, न हो, वही ईश्वर हो सकता है । यह मान्यता जैनोंकी ही नहीं, किन्तु अन्य धर्मानुयायी भी इसे मुक्त कंठसे स्वीकार करते हैं।
सभ्य श्रोतृ वृन्द ! जब मैं पंजाबमें विचरता था तब बहुतसे लोगोके मुँइसे सुना करता था कि “ पढ़ी गीता तो घर काहेको कीता " अर्थात् यदि गीताका अध्ययन किया, तो फिर घर करनेकी क्या आवश्यकता ? इसका खुलासा मतलब यह है कि, गीतामें कहीं कहीं इतना पारमार्थिक रहस्य भरा हुआ है कि, यदि कोई उसका मनन द्वारा निदिध्यासन करे तो हृदयपट अवश्य ही वैराग्यके प्रशस्त रंगसे रंगे विना नहीं रह सकता । अन्यथा यूँ तो पोपट ( तोता ) की राम राम रटनाकी तरह सभी गीता पाठी हैं ! उसी गीतामें लिखा है कि
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ अ. ४ श्लों.१ .
जिनका राग, भय और क्रोध नष्ट हो गया है, और मत्परायण होकर जो मेरी उपासना करते हैं ऐसे बहुतसे मनुष्य, ज्ञान और तपके द्वारा पवित्र होकर मेरे शरीरको पाप्त हुए हैं। अब विचारना चाहिए कि, ईश्वरीय रूप प्राप्त करनेके लिए जब
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