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आत्मानंद जयंती। [ यह व्याख्यान आपने सं १९७१ के ज्येष्ठ सुदी ( को आत्मानंदजयन्तीके समय लालबागमें दिया था ।]
महाशयो ! यद्यपि आजका दिन जयन्तीका है तथापि मैं इसको खुशीका दिन नहीं समझता; अफसोसका दिन समझता हूँ। मनुष्यको दुःख उसी समय होता है जब किसी ऐसे मनुष्यका वियोग होता है जिसके कारण उसका लाभ होता है, अथवा यूँ कहिए कि उसी मृत मनुष्यके लिए लोग शोक करते हैं जिसके कारण उनका कोई मतलब बिगड़ता है; उनका कोई स्वार्थ नष्ट हो जाता है। इस स्वार्थी दुनियामें कोई तबतक दुःख नहीं करता जबतक उसके स्वार्थमें व्याघात नहीं पहुँचता।
सज्जनो ! आप कहेंगे कि, साधुओंको शोक करनेकी क्या आवश्यकता है ? मैं कहूँगा शोक शोकमें भी भेद होता है। एक प्रशस्त होता है और दूसरा अप्रशस्त । अपने निजी नुकसानके कारण जो शोक किया जाता है वह स्वार्थपूर्ण, और मोहगर्भित अप्रशस्त शोक है । मगर जब एक मनुष्य यह विचार कर शोक करता है कि एक उपकारी महात्मा उठ गये हैं उनकी जगहको अब कौन पूरेगा ? तब उसका शोक निःस्वार्थ और भक्ति पूर्ण प्रशस्त शोक कहलाता है । मैं जिस शोककी बात कहता हूँ, वह अप्रशस्त नहीं प्रशस्त है । अप्रशस्त शोक कर्म बंधनका कारण होता है और प्रशस्त शोक कर्म निर्जराका। ..
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