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अपने बाप दादोंकी द्रव्यरूपी पुँजीके मालिक बने हो, उसका बराबर हिसाब रखते हो और उसे बढ़ानेकी चिन्ता करते हो, तब उन्ही बापदादोंकी धार्मिक पूँजीको तुम लापरवाहीसे क्षीण होने देते हो यह कितने दुःखकी बात है। __संसारकी नश्वर पूँजीके लिये जितनी जहमत उठाई जाती है। जितना प्रयत्न किया जाता है उतना ही यदि परमार्थकी धार्मिक पूँजीके लिए-जो आत्माकी खास ऋद्धि है-प्रयत्न किया जाय तो यह आत्मा अत्यंत उच्च बन सकता है। हमेशा याद रखना चाहिए कि, दुनियामें सांसारिक उन्नतिका मूल कारण धार्मिक उन्नति ही है। मर्यादाके-धर्मके आदेशोंके अनुसार जो संसारमें वर्तता है वही संसारमें उन्नति कर सकता है। कोई बता सकता है कि मर्यादाहीन अनीतिमान मनुष्यने भी कभी उन्नति की है । कदापि नहीं । धार्मिक उन्नति आत्माके गुण, जैसे जैसे प्रकट किये जाते हैं वैसे ही वैसे आत्मिक उन्नति बढ़ती जाती है कि, जिससे अंतमें मोक्ष मिलता है। यहाँ मैं इतना कहूँगा कि, गुण प्रकट करनेके लिए अवलंबनकी आवश्यकता पड़ती है। इस लिए आत्मिक गुण प्रकट करनेकी इच्छा रखनेवालोंको, स्वर्गीय महात्माके समान महात्मा पुरुषोंका, आदर्शकी तरह, अवलंबन करना चाहिए । सच्चे अवलंबनका त्याग करनेहासे इस दुनियामें आजकल हम कितने पीछे पड़ गये. हैं ? यह बात विचारणीय है।
कई कहते हैं कि, आजकल पंचमकाल है। मैं पूछता हूँ कि, पंचमकाल सबके लिए है या फकत जैनोंहीके लिए है। जो जैन,
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