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एक दिनका जिक्र है । लुधियानेमें कुछ आसर्यमाजी भाइयोंने श्रीमहाराज साहबसे अर्ज की कि, आप देव मंदिर तो बनवाये जाते हैं, मगर देवमंदिरके रक्षकोंके उत्पादक देववाणी-सरस्वतीके मंदिरकी भी जरूरत है। . श्रीमुखने, आहा ! क्या ही उस वक्त समयसूचकताका जवाब दिया ! सुनकर सब खुश हो गये । आपने फर्माया था,-" इस वक्त इनको देवभक्त बनानेकी जरूरत है, इस लिए देवमंदिर बनते हैं। जब यह कार्य पूर्ण हो जायगा खुद ब खुद देववाणीका खयाल हो जायगा।" __ बेशक महापुरुषोंकी वाणीमें भी देववाणीकाही असर होता है । आपका कहना ज्योका त्यों ही मेरे अनुभवमें आ रहा है। धीरे धीरे पाठशाला हाइ स्कूलके रूपमें प्रविष्ट हो कॉलेजके रूपमें आनेकी संभावना हो रही है। ___ महाशयो ! मेरे अंदर भी इस बातका बीज उस वक्तका बोया हुआ धीरे धीरे अंकुरके रूपमें प्रकट हुआ आपको नजर आता होगा । परंतु वह सद्गुरूका बोया हुआ बीज सफल तब ही माना जायगा, जब सरस्वती मंदिर बन कर उसमेंसे देव-देववाणीके रक्षक सरस्वतीपुत्र उत्पन्न होंगे । मुझे कहनेका अधिकार नहीं, मगर रहा भी नहीं जाता, जितना आप लोगोंका लक्ष्मीके प्रति प्रेम है यदि थोडासा भी सरस्वतीके प्रति होवे तो आपका उभय लोकमें भला होवे। परंतु अफसोस ! आपने एकको जितना मान दिया है उतना ही बल्के उससे भी अधिक दूसरीका अपमान कर रक्खा है । लोक
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