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(१४३) मुनीम-जो साधु मुनिराज कहाते हैं यदि किसी किस्मकी बेईमानी न करें तो हानिका तो काम ही नहीं बल्के, वृद्धि पाते पाते परमात्मा स्वरूप खुद परमात्मा बन सकते हैं। दुकान मौजूद है, सौदा मौजूद है। मुनीम होशियार होना चाहिए । यदि मुनीम सच्चाईसे काम करता रहेगा, दिन दिन बढ़ती ही होगी । यदि कोई बेईमानी की तो वह काँदेकी वासकी तरह जाहिर हुए विना न रहेगी। आखिरमें उस बेईमान मुनीमका दिवाला निकल जायगा । मुँह काला हो जायगा । इस लिए वीतरागकी दुकानमें वीतराग बनने बनानेका ही सौदा होना चाहिए। जहाँ वीतराग बनने बनानेके सौदेके सिवाय-रागद्वेषकी परिणतिकी कमी-हानिके सिवाय-अन्य कोई सौदा रागद्वेष, ईर्षी, ममता, माया अहंकार आदिकी वृद्धिका नजर आता है वह वीतरागकी दुकान नहीं, वह वीतरागकी दुकानका मुनीम नहीं, वह ज्ञान नहीं, वह ज्ञानी नहीं, वह समझ नहीं, वह समझवाला नहीं। भगवान हरिभद्रसूरि महाराज फरमाते हैं।
तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिनुदिते विभाति रागगणाः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकर किरनाग्रतः स्थातुम् ॥ १॥
भावार्थ इसका यह है कि, वह ज्ञान नहीं है जिस ज्ञानके होने पर रागादिका समूह दिखाई दे। अंधेरेमे सूर्यकिरणोंके आगे खड़े रहनेकी शक्ति कहाँ हैं ?
कर्तव्यपरायण होना चाहिए। महाशयो!ज्ञानका फल वैराग्य होना चाहिए। इस लिए ज्ञान, पांडित्य, समझ, इल्म तभी सफल माना जाता है, जब उसके स्वामी सदाचारी
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