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(७४) आयिंदाको इससे अधिक ही होगी ! क्या यह थोड़ी बेकदरी है ? साधु साध्वियोंके शहरमें होते हुए भी कितनेक अमीर लोक तो क्या गरीब भी उस तर्फ नजर करते झिजकते हैं ! यह किसका प्रभाव ? एकके एक ही स्थानमें ममत्व बाँधकर रहेनेकाही ना कि, अन्य किसीका ? क्या कभी आपने सुना था या सुना है ? कि स्वर्गवासी महात्मा श्रीमद्विजयानंद सूरि ( आत्मारामनी ) महाराजजी अमुक उपाश्रयमें या अमुक स्थानमें ही रहते थे ? कभी भी नहीं । बस यही कारण समझिये जो कि उनकी निसबत कुल हिंदुस्तानके जैनोंके मुख से एक सरीखाही उद्गार निकलता है; क्यों कि, उन्होंने कोई अपना नियत स्थान नहीं माना था ! और नाही वे अमुक अमुक सेठके गुरु खास करके कहे जाते थे. और कहे जाते हैं। जिसका कारण उन महात्माका यह ख्याल ही नहीं था कि, अमुक हमारा भक्त श्रावक और अमुक नहीं ! बलकि वो इस बातको खूब जानते थे कि, श्रावक वगैरहके ममत्वमें जो कोई फँसता है या फँसेगा उसको गुरुके बदले शिष्य बननेका समय आता है ! अवश्य आयगा ! क्यों कि, जब किसीके साथ ममत्वका संबंध हो जायगा तो उस वक्त उसका कहना अवश्य ही मानना पड़ेगा। अगर न मानेगा तो झट वो फरंट हो जायगा । जिसका जरा दीर्घदर्शी बन विचार किया जाय तो, हम तुमको तो क्या प्रायः कुल आलमको ही अनुभव सिद्ध हो रहा है कि, आजकल प्रायः कितनेक साधु सेठोंके प्रतिवं
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