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इस विषय को विचारा है उससे यह बात सिद्ध नहीं हुई कि जैनमत के साधुओं को वार्तालाप के सिवाय अहोरात्र अखंड मुखबंधन और सर्वकाल मुखपोतिका के मुख पर रखने की विधि है। केवल भ्रांति है। केवल वार्तालाप के समय ही मुखवस्त्र के मुख पर रखने की आवश्यकता है। हमारे बुद्धिबल की दृष्टि द्वारा यह बात प्रकाशित होती है कि आपका पक्ष ढूँढियों से बलवान् है। ___ यद्यपि आपका और ढूंढियोंका मत एक है और शास्त्र भी एक हैं। इसमें भी सन्देह नहीं, साधु उदयचन्दजी महात्मा और शांतिमान् हैं परंच आपने जैनमत के शास्त्रों में अतीव परिश्रम किया है और आप उनके परम रहस्य और गढर्थिको प्राप्त हुए हैं । सत्य वो ही होता है जो शास्त्रानुसार हो और जिसमें उसके कायदों से स्वमत और परमतानुयायिओंको शंका ना हो, शास्त्र के विरुद्ध अंधपरंपराका स्वीकार करना केवल हठधर्म है।
पूर्व विचारानुसार जब आपका शास्त्र और धर्म एक है और उसके कर्ता आचार्य भी एक हैं फिर आश्चर्य की बात है कि कहा जाता है कि हमारे आचार्यों का यह मत नहीं है और ना इन ग्रन्थों के वोह कर्ता हैं ! आप देखते हैं कि हमारे भगवान् कलकी अवतार की बाबत जहाँ आप देखोगे एक ही बृत्त पावेगा ऐसे ही आपके भी जरूरी है। __ आपके प्रतिवादी के हठ के कारण और उनके कथनानुसार हमें शिवपुराण के अवलोकन की इच्छा हुई । बस इस विषय में उसके देखने की कोई आवश्यकता नहीं थी । ईश्वरेच्छा से उसके
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