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धमें ऐसे प्रतिबद्ध हुए होंगे कि, शेठका कहना साधुको तो अवश्य ही मानना पड़ता है ! सेठ चाहे साधुका कहना माने या न माने यह उसकी मरजीकी बात है । तो अब आप लोक ख्याल करें, ऐसी हालतमें शेठ गुरु रहे कि साधु ? सत्य है निनवचनसे विपरीताचरणका विपरीत फल होताही है । इस लिये यदि साधुको सच्चे गुरु बने रहना हो तो शास्त्राज्ञाविरुद्ध एकही स्थानमें रहना छोड़, ममत्वको तोड़, गुरु बनना चाहते शेठोंसे मुखमोड़, अन्य देशोंके जीवोंपर उपकार बुद्धि जोड़, अप्रतिबद्ध विहारमेंही हमेशह कटिबद्ध रहना योग्य है; ताकि, धर्मोन्नतिके साथ आत्मोन्नतिद्वारा निन कार्यकी भी सिद्धि हो. मैं मानता हूँ कि, मेरे इस कथनमें कितनाक अनुचित भाग होगा मगर, निष्पक्ष होकर यदि आप विचारेंगे तो उमीद करता हूँ कि, अनुचित शब्दके नका (१) आपको अवश्यही निषेध करना पड़ेगा; तथापि किसीको दुःखद मालुम हो तो, उसकी बाबत मैं मिथ्या दुष्कृत दे, अपना कहना यहाँही समाप्त करताहूँ।
इस प्रस्ताव पर मुनि श्रीचतुरविजयजीने अच्छी पुष्टि की थी। बाद सर्वकी सम्मतिसे यह प्रस्ताव बहाल रखा गया ।
प्रस्ताव सातवाँ। अपने साधुओंमें अवश्य लोच करनेका जैसा रिवाज है
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