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उपदेश वगैरहका उद्यम करता हो तो, उसको भी अपने साधुओंने यथाशक्ति मदद करनेका प्रयत्न करना ।
यह प्रस्ताव प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजने पेश करते हुए मालूम किया था कि, अपना धर्म दयामय है । 'अहिंसा परमोधर्मः ' यह जैनका अटल सिद्धांत है ।
दया के लिये जो काम हमें खुद करने चाहिये वह कार्य अगर कोई दूसरा करता हो तो, अपनेको यह समझना चाहिये कि, यह हमारा ही कार्य करता है; इस लिये ऐसे मनुष्यों को मदद पहुँचाने का ख्याल हमको हमेशह रखना चाहिये ।
इस पर मुनि श्रीवल्लभविजयजी महाराजने पुष्टि करते हुए कहा था कि, श्रीमान् प्रवर्तकजी महाराजजीने जो कुछ " जैनेतर धर्मोद्यत पुरुषको यथाशक्ति मदद पहुँचानेका अपने साधुओं को ख्याल रखना चाहिये " फरमाया है, वह अक्षरशः सत्य है । यह अपना अवश्य ही कर्तव्य है. ।
मान्य मुनिवरो ! मैं यकीन करता हूँ कि, आपके उपदेशका परमार्थ मुनिमंडल तो समझ ही गया होगा; परंतु जो अन्य रंग विरंगी पगड़ियाँवाले प्रेक्षकगण उपस्थित हैं उनमें शायद कोई न समझा हो तो, वो समझ लेवें कि, साधुओंकी मददसे यही मुराद है कि, योग्य पुरुषोंको उपदेशद्वारा योग्य प्रबंध जहाँतक हो सके करा देवें । साधुओंके पाससे उपदेशके
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