________________
भिन्न २ मतवाले एक दूसरेसे अपने धर्मको अधिक प्रिय और पवित्र समझते हैं, तो क्या वे सभीके सभी झूठे हैं ? नहीं। प्रत्येक मतमें कुछ न कुछ सत्यताका अंश अवश्य है ! परन्तु यह सत्यता कहाँसे आई ? इस सत्यताके स्रोतका मूल कारण क्या है ? और वस्तुस्थिति क्या है ? इसका परामर्श करना हमारा सबका काम है । परमात्मा किसीको स्वयं आकर कुछ नहीं समझाता ! इसलिए हेयोपादेयका-छोड़ने और ग्रहण करने योग्यका - विचार करना यह अपना ही कर्तव्य है । इस विषयमें मैं अपने अनुभवका एक दृष्टान्त सुनाता हूँ। ____ अमृतसर ( पंजाब ) के पास मानावाला नामका एक गाम है, दैवयोगसे एक वक्त स्वर्गवासी प्रसिद्ध महात्मा जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरि उर्फ आत्मारामजी महाराजके साथ वहाँ मेरा जाना हुआ । वहाँपर हीरासिंह नामका एक नम्बरदार है। भिक्षाके समय गाममें मेरा जाना हुआ। गाममेंसे साधुके योग्य शुद्ध आहार मात्र उक्त नम्बरदारके घरसे तक (छाछ ) मिली,
और लोगोंसे ज्ञात हुआ कि गाममें यह नम्बरदार ही कुछ सम्पन्न पुरुष है । बहुतसे लोग उसके घरसे थोड़ी २ छाछ ले जाते हैं । उसमें और, पानी मिलाकर अपना अपना निर्वाह चलाते हैं। उस एक घरकी छाउसे कितने ही घर छाछवाले बन रहे हैं । स्थानपर आकर उक्त स्वर्गवासी गुरु महाराजसे नम्बरदारके घरका सब हाल कह सुनाया। उस वक्त आपने कहा कि,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org