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सार्वजनिक धर्म।
( स्थान-बड़ौदा, ता. १६-३-१३ रविवार. ) र मो मा ग म म मा दं द्वे ह या ग द ल नं भ पः
एते यस्य न विद्यन्ते,
तं देवं प्रणमाम्यहम् ॥ प्रिय सज्जन महाशय ! मैंने गत रविवारके व्याख्यानमें देव और गुरुका कुछ नाम मात्रसे वर्णन किया था । आनके व्याख्यानमें उक्त विषयका कुछ सविस्तर वर्णन आपको सुनाऊँगा । आप मेरे गत व्याख्यानके श्रवणसे इस विचारपर आ गये होंगे कि, वस्तु स्थितिमें धर्मके विषयमें सबका समान स्वत्व है।
और धर्म सबके लिए एक जैसा है । एवं प्राणिमात्रके लिए अनुष्ठेय है । जब धर्म सबके वास्ते एक ही है, तब देव भी एक ही होना चाहिए । और उसका उपदेश भी परस्पर अविरुद्ध
और सबके लिए एक जैसा ही होना आवश्यक है। यदि देव मिन्न २ माने जायँ तो उनका उपदेश भी भिन्न २ ही मानना होगा । उपदेशकी भिन्नतासे उपदिष्ट मार्गकी भिन्नता स्पष्ट ही ह। तब तो आत्म शुद्धिकी समान उपलब्धि सबके लिए अशक्य है । इस लिए प्रथम देव तत्वपर विचार करनेकी जरूरत है।
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