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आवश्यकता है ! ( करतल ध्वनि ) जो मनुष्य साधुके अनुरूप आचरण रखता है उसे आप सन्यासी कहो, उदासी कहो, वैरागी कहो, मतलब कि-किसी नामसे वह परिचयमें आवे, परन्तु वह आत्मा और संसारके उद्धारमें प्रयत्न शील होना चाहिए ! एक भाषाके कविने साधुके स्वरूपका चित्र बहुत ही अच्छा खींचा है। साधुके लक्षण बतलाता हुआ कवि कहता है कि" साधु सो जो साधे काया, कौड़ी एक न रखे माया । लेना एक न देने दो, ऐसा नाम साधुको हो ।"
अर्थात्-साधु उसे कहते हैं जो आत्मसाधनमें प्रवृत्त हो। आत्मसाधन कब हो सके ? जब कौड़ी मात्र भी अपने पास माया न रखे ! माया दो प्रकारकी । एक द्रप्य-माया, दूसरी भाव-माया । द्रव्य-माया तो धन, लक्ष्मी वगैरह प्रसिद्ध ही है । छल, कपट वगैरह भाव-माया कही जाती है । जो मनुष्य इस दो प्रकारकी मायामेंसे किसीसे भी संबंध नहीं रखता वही आत्म-साधन कर सकता है। जब सब तरहकी मायासे रहित हो गया तो फिर न किसीका लेना रहा और न किसीका देना रहा । मात्र एक परमात्माका नाम ही लेना उसके लिए अवशिष्ट रहा । एवं न किसीको वर देना और न शाप । क्योंकि उक्त दोनों कामोंसे रागद्वेषकी वृद्धि होती है। रागद्वेषकी वृद्धि ही साधुताकी विरोधिनी है।
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