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सकता, तब भी निर्दोष प्राणियोंका रक्षण तो गृहस्थको अवश्य करना चाहिए। इसीमें उसका भला है । साधुकों तो प्रत्येक सावद्य - हिंसा- पाप जनित व्यापारका परित्याग करना चाहिए । इसमें साधुता चरितार्थ हो सकती है ।
सज्जनो ! अहिंसा धर्म ( किसी प्राणीको दुःख न देने ) का प्रत्येक मतमें उपदेश है । इसकी श्रेष्ठता को भी प्रत्येक सम्प्रदाय स्वीकार करता है । किसी धर्ममें भी हिंसा करनेकी छूट नहीं दी गई । कितनेक लोग कहते हैं, अहिंसा धर्मके पालनमें जैनधर्म सबमें अप्रेसर है, सो यह बात ठीक है । परंतु मैं चाहता हूँ कि, एक एक मनुष्यका हृदय ऐसा दयामय हो जाय कि, उसके प्रभाव से संसारभर में, अहिंसामय धर्मका ही नाद सुनाई देने लगे ! ( हर्षध्वनि ) विचारपूर्वक गवेषणा करने से मालूम होता है कि, हिन्दु - मुसलमान - पारसी - ईसाई - यहूदी सभी धर्मो में अहिंसा व्रतके पालन करनेका उपदेश है ।
गृहस्थो ! सबकी आत्मा समान है । हर एक जीव सुखका अभिलाषी है । दुःख अथवा भय किसीको भी प्यारा नहीं । प्रत्येक प्राणी जीवनमें जितना सुख मानता हैं, उससे कई हिस्से अधिक भय उसको मरणसे है । हमारे पैर में यदि एक मामूलीसा काँटा भी लग जाता है तो उसकी वेदनासे ही हम घबड़ा उठते हैं। किसी किसीको तो वह भी असह्य हो
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