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(७१) अनुभव क्योंकर हो सक्ता है। परिचित स्थानमें तो जिस वक्त साधु महाराज गोचरी लेनेको पधारते हैं उस वक्त मुनियों के पीछे श्रावकोंके टोलेके टोले साथ हो लेते हैं। कोई तो इधरको खींचता है कि, इधर महाराज, इधर पधारो और कोई अपनी ही तरफ । लेकिन, जहाँ पंजाब मारवाड आदि स्थानोंमें कितनेक ठिकाने श्रावकोंके घर ही नहीं, या वह लोग अन्य धर्मपालन करने लग गये हैं वैसे स्थानोंमें विहार होवे तो, परिषहोंका भी अनुभव हो । ___महाशयो ! अपने साधुओंको तो प्रायःयह अच्छी तरहसे. अनुभव है कि विना साधुओंके हजारों जैन अन्यधर्मवालों के सतत परिचय होनेसे उनके ही अनुयायी होते जाते हैं । अपने महान आचार्योने जिन्हें प्रतिबोधकर जैन धर्ममें दृढ किया था आज हम उन्हें मिथ्यात्वमें पड़ते देखकर भी कुछ ख्याल न करें, या परीषहोंसे डरके मारे अपनी कमनोरी बतलाकर गुजरातमे ही पड़े रहें, यह हमें शोभनीय नहीं है । महाशयो ! अपने जैन श्रावकोंकी संख्या दिनपर दिन घटती जाती है उसका दोष अपनेही ऊपर है । एक समय ऐसा था कि एक देशसे दूसरे देशमें जाना बड़ा ही मुश्किल काम था। अन्य धर्मवालोंकी तर्फसे राजाओंकी तर्फसे चोर और लुटेरोंकी तर्फसे, साधुओंको विहारमें बड़ी मुसीबतें पड़ती थीं। ऐसे विकट समयमें भी अपने पूर्वाचार्योने दूरदूर देशोंमें जाकर, लोकोंको प्रतिबोधकर जैनधर्मी
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