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सज्जनो । संसार में सारे झगड़ों का मूल जर, जोरु और जमीन ये तीन वस्तुएँ हैं । इन्हींके निमित्तसे अनेक अनर्थ हो रहे हैं। आज आप लोग जिस स्थानमें पधारे हैं यह भी इन्हीं तीनोंके झगड़े को मिटानेके लिए नियत किया गया है । ( करतलध्वनि ) इसलिए इन तीनों उपाधियोंसे साधुको सदा मुक्त रहना चाहिए। इनमें भी सबसे अधिक अनथका मूल जर-धन है । बाकी की दो उपाधियाँ तो इसीका रूपान्तर हैं । धनका उचित रीति से संपादन, रक्षण और व्यय करना गृहस्थके लिए तो शोभास्पद है मगर साधुके लिए कलंक रूप है । क्योंकि, गृहस्य और साधुके धर्म भिन्न २ हैं । यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो कहना होगा कि, यदि गृहस्थके पास कौड़ी न हो तो वह गृहस्थ कोड़ीका और साधुके पास कोड़ी हो तो वह साधु कौड़ीका ! ( करतलध्वनि ) मतलब कि गृहस्थ द्रव्यस शोभा देता है, और साधु त्यागले । अतः साधुको द्रव्यादिके संसर्गसे सदा मुक्त रहने की आवश्यकता है ।
साधुके लिए शास्त्रों में मुख्यतया पाँच नियमोंके पालन करनेकी आज्ञा दी है। उनमें प्रथम नियम अहिंसा है ।
प्रत्येक सूक्ष्मसे स्थूल पर्यन्त प्राणिमात्रकी रक्षा करना अहिंसा कही जाती है। इस नियमका पालन करना साधुको परम आवश्यक है । जीवरक्षामें तत्पर रहना गृहस्थका भी धर्म है । परन्तु गृहस्थ सर्वथा अहिंसा व्रतका पालन नहीं कर
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