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प्रस्ताव चौथा. कोई साधु, जिसके पास आप रहता हो उससे नाराज होकर चाहे जिस किसी अपने दूसरे साधुके साथमें जा मिले तो, उसको विना आचार्य महाराजकी आज्ञाके अपने साथ हरगिज न मिलावे ।
- इस प्रस्तावको पेश करते हुए मुनि श्रीविमलविनयजीने खुलासा किया था कि, इस प्रस्तावका मतलब यह है कि, किसी दूसरे साधुका चेला नाराज होकर अपने गुरुको या गुरुभाई
आदिको छोड़कर आया हो उसको कितनेक साधु अपने पास रख देते हैं ऐसा नहीं होना चाहिये । कारण कि, ऐक्यमें त्रुटि और शिष्यको गुरुकी बेपरवाही होनेका संभव है।
आनेवालेके मनमें यूं आ जाता है कि, ओह । क्या है। बस । मैं जिसके साथमें जी चाहेगा उसके साथ जा रहूँगा । मुझे गुरुकी क्या परवाह है। इतना ही नहीं । बलकि, किसी गुन्हा ( कसूर ) के होनेपर अगर गुरुने कुछ हितशिक्षा दी हो, तो उसकी हितशिक्षाको उलटी मना, दूसरेके पास जाकर अवर्णबाद बोल, गुरुको ही झूठा ठहराकर आप सच्चा बननेकी चेष्टा करता है । इसका आपसकी प्रीतिभावमें विघ्न डालनेके सिवाय, अन्य किंचित् मात्र भी फायदा नजर नहीं आता। इत्यादि कारणोंको लेकर इस नियमके पास होनेकी परम आवश्यकता है।
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