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प्रतिदिन घटती जाती है ! जबके अन्य जातियाँ अपनी उन्नतिको नदीके पूरके समान बढ़ा रही हैं। तो जैन जाति जो कि उन्नतिकी ही मूर्ति कही जा सकती है, उसको अपनी उन्नतिमें योग्य ध्यान नहीं देना अतीव चिंतनीय है।
महानुभावो! सोचो ! यदि ऐसी ही स्थिति दो चार शताब्दि तक रही तो, न मालूम, जैनजातिका दरज़ा इतिहासमें कहाँ पर जा ठहरेगा ? इस लिये अपनेको इन बातोपर विचार कर ऐसा प्रबंध करना चाहिये, जिससे कि अपने समुदायकी तरफसे धर्मकी उन्नति प्रतिदिन अधिकसे अधिक हो और उसकी छाप दूसरे समुदायपर भी पडे ।
अपने साधुओंकी संख्या अन्य सिंघाड़ेके साधुओंसे अधिक है इससे जहाँ जहाँ जिन जिन स्थलोंमें साधुओंका जाना नहीं होनेसे हजारों जीव जैनधर्मसे पतित होते जाते हैं, ऐसे क्षेत्रोंमें विचरना, और उनको उपदेश देकर धर्ममें दृढ़ करना । यदि अपने साधु ऐसा मनमें विचार लेवें तो, थोड़े ही कालमें बहुत कुछ उपकार हो सकता है । बहुतसे साधु केवल बड़ेबड़े शहरों में ही विचरते हैं, इससे बिचारे ग्रामोंके भाविक जीव वर्षांतक साधुओंके दर्शन और उपदेश बिना तरसते रहते हैं। इससे
आपने साधुओंको चाहिये कि, जहाँ अधिकतर धर्मकी उन्नति हो, वहाँ पर ही चतुर्मासादि करें।
महाशयो ! मैंने आपका समय बहुत लिया है. परंतु
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