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चपटे होते हैं, और वे होठोंसे पानी पीते हैं। उदाहरणके लिए सिंह और गौ समझिए । मनुष्य के सम्बन्धमें विचार करनेसे उसकी तुलना वनस्पतिका आहार करनेवाले गाय आदि जानवरसे ही हो सकती है । मांसभोजी सिंह आदि पशुओंके सदृश समझ कर उसे वृथा ही दयाहीन हिंसक बनाना सत्य और न्यायका ही नहीं, बल्के मनुष्यत्वका भी नाश करना है ! जो लोग सृष्टिक्रमसे विरुद्ध होनेपर भी अपने क्षणभरके मजेके लिए अनाथ पशुओं के मांससे अपने मांसकी पुष्टि करते हैं उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि, उनके लिए इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा । प्रकृतिके यहाँ किसीका भी लिहाज नहीं । इसलिए यदि आपको अहिंसा धर्मसे प्रेम है, और आप संसारमें शांति चाहते हैं तो मांसाहार के प्रचारको रोकिए । ( हर्षध्वनि )
इसके सिवा सत्य भाषण करना साधुका दूसरा नियम है । यह नियम गृहस्थ के लिए भी सर्वदा अनुष्ठेय है । सत्यका कितना प्रभाव है, और सत्य बोलनेसे आत्मा कितना उन्नत हो सकता है, यह आप लोग स्वयं ही विचार कर सकते हैं । इस लिए सत्य पर विशेष विचार न करता हुआ अब साधुके अदत्तादानविरमण रूप तीसरे नियम पर कुछ आप लोगोंके ध्यानको खींचता हूँ । अदत्तादानका अर्थ है विना दिये हुए लेना । साधुको विना दिये किसीके किसी भी पदार्थको ग्रहण करना अनुचित है । किसीके देने पर भी साधुको वही वस्तु ग्रहण करनी चाहिए जो कि उसके ग्रहण करने योग्य हो ।
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