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परन्तु प्रसंगान्तर होनेसे इसको यहीं पर छोड़ता हुआ अपने प्रस्तुत विषय पर आता हूँ ।
सभ्य वृन्द ! देव कैसा होना चाहिए ? उसकी परीक्षा किस तरह करनी चाहिए ? इस बातको मैंने आपसे बतला दिया है । आप लोग उस पर विचार करेंगे, ऐसी मुझे आशा है । अब देवके साथ गुरुके स्वरूपका ज्ञान करना भी आवश्यक है । गुरु कैसा होना चाहिए, उसमें किन बातोंका होना लाजमी है ? इस पर विचार करना बहुत जरूरी है । क्योंकि, धर्म और अधर्मका यथार्थ ज्ञान होना गुरुओं पर अवलम्बित है । धर्मरूप नौका गुरु कर्णधार हैं। संसार में आज जितने साधु दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे गुरु पदके योग्य तभी हो सकते हैं, जब उनमें साधुताके गुण विद्यमान हों। अन्यथा चातुर्मासमें उत्पन्न होनेवाले इन्द्रगोप नामके एक क्षुद्र कीटकी तरह नाम मात्र धारण करनेसे कुछ सिद्ध नहीं ! जैसे वह कीट इन्द्रगोप इस नाम मात्रसे इन्द्रकी रक्षा नहीं कर सकता इसी प्रकार साधु इस नाम मात्रसे कभी भी आत्म साक्षात्कार नहीं हो सकता ! इसलिए सच्ची साधुता प्राप्त करने की आवश्यकता है । साधुका आचार बहुत ही शुद्ध होना चाहिए । साधु -- श्रेष्ठ काम करनेवालेको संस्कृत भाषामें साधुकार कहते हैं । उसीका प्राकृत भाषा में साहुकार बनता है। जैसे सच्ची दुकान चलाने के लिए प्रामाणिक सद्व्यवहारी साहुकार होने की जरूरत है, ऐसे ही धार्मिक दुकान चलानेके लिए भी साधु रूप साहुकार की
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