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आदर्श जीवन।
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सामानेमें प्रतिष्ठाके समय आपके पास एक मुसलमान सज्जन-जो वहाँके रईस और निकटके ग्रामके. "स्कूलके मास्टर थे-आया करते थे । आपके पास आने जानेसे उनके दिलमें अहिंसा और दयाके विचार पैदा हुए । आपने उन्हें एक दो किताबें भी दी । जब आप होशियारपुरमें विराजते थे तब उन्होंने आपके पास एक पत्र भेजा था। उसकी नकल यहाँ दी जाती है:___ " पीरे तरीक़त, राहे हिदायत श्रीमुनिवल्लभविजयजी महाराज ! बाद अदाए आदाब व तस्लिमाना बजा लाकर अर्ज खिदमात आलीजाह हूँ। बंदा बखैरियत और खैरोआफियत हुजूर अन्वर नेक मतलब । हजूरकी मुलाकातसे जो कुछ फायदा उठाया बयानसे बरूँ। दोनों किताबें जेर मुताला हैं। जहाँ तक मेरे इन्साफ़ने फैसला दिया है, मसला दया और अहिंसाका जैनतालीममें फौकियत रखता है । वाकईमें दया ही धर्मका मूल है। जैसे तुलसीजी साहब फर्माते हैं
दया धर्मका मूल है, पापमूल अभिमान ।
'तुलसी' दया न छोड़िए, जबलग घटमें प्रान । दासकी निहायत अदबसे अरदास है, दया दृष्टि फ़ाएँ । बंदा बारह तेरह रोज तक हाज़िर खिदमत होकर कदम्बोसी हासिल करेगा । बराए परवरिश एक किताब जिसमें जैनपुरुषार्थका लबेलबाब यानी रियाज़त या तप-ध्यान या मराकबा ज्ञान या मारफ़तके अमूल उर्दूमें हों तो बेहतर है,
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