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(४) - कन्हैयालालने दोनों बातें नोट कर ली और कहा कि. वह अपने पूजनीसे ये बातें पूछेगा।
मुनि वल्लभविजयजीने उसे ढूंढिये साधु ऋषिराजकी बनाई. हुई 'सत्यार्थसागर नवीन ग्रंथ ' नामकी पुस्तक दिखाई और कहा-“ देखो तुम्हारे साधु ही इस विषयमें क्या लिखते हैं।" उस पुस्तकके ४ ३९ वे पेजमें यह लिखा है,
प्रश्न—साधु साध्वी लघुनीत ( पेशाब करना ) बड़ी नीत. (पाखानेजाना ) होकर यदि शरीर शुचि न करे तो प्रायश्चित्त होय के नहीं ? ... उत्तर–प्रायश्चित्त होय । निशीथसूत्रके उद्देशमें कह्यो है ते. पाठ ( जो भिक्खु उच्चार पासवनं परिठ वित्ताणाय मंतंवा साइज्जइ १४०) अर्थ-जो कोई साधु साध्वी दिशामात्रा (पाखाने पेशाब ) फिर कर पानीसे शुचि न करे तो प्रायश्चित्त होय ।। जो साधु साध्वी रोगादि कारण विशेष जानकर शरीर शुचिके वास्ते रात्रिको राख मिलायकर पानी शरीर शुचि कारणे रक्खे तो कोईसा साधुका महाव्रत नहीं जाता है। क्योंकि लघुनीत बड़ीनीतकी दुर्गध जहाँ तक होगी, वहाँ तक सूत्र पढ़ना मना है। और प्रभातकाले पडिकमणा कैसे करे और व्याख्यान सूत्रका कैसे करे ? जो शुचि शरीर न हो; असिझाइ रहे तो सूत्रमें असिझाइ टालनी कही है।
कन्हैयालालने पूछा- "तुम्हारा रजोहरण छोटा क्यों है ?
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