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और दोनोंके लिए ईश्वरका भिन्न २ उपदेश है । इमलिए दो ईश्वरों में एककी भूल तो मंजुर करनी ही पड़ेगी। परंतु विचारसे देखा जाय तो किसीके ईश्वरकी भूल नहीं, भूल सिर्फ अपनी ही है । अपने ही वस्तु स्थिति पर उचित विचार नहीं करते । यदि पानीके दृष्टान्त पर विचार करें तो इस बातका खुलासा बहुत ही जल्दी हो सकता है । एक ही नलकेसे एक ही जैसा पानी सबको मिलता है, मगर उसी पानीको लेकर एक आदमी तो “ हिन्दुका पानी " और दूसरा “ मुसलमानका पानी" कहकर पुकार रहा है । इसपर प्रश्न उपस्थित होता है कि, एक ही स्थानसे वह पानी लाया गया । और एक जैसा ही उसका रूप स्वाद और वज़न है फिर उसमें हिन्दु और मुसलमानपना कहाँसे आया ? इसके उत्तरमें यही कहा जा सकता है कि, पानीमें तो फरक नहीं परन्तु जुदे २ बर्तन-घड़ा वगैरामें पड़नेसे वह हिन्दुका और मुसलमानका कहालाया है । अर्थात् हिन्दुके बर्तनमें प:नेसे हिन्दुका, और मुसलमानके बर्तन में पड़ने से मुसलमानका । इसी तरह आत्माके संबंन्धमें समझना चाहिए । शरीर रूप बर्तन में जब तक यह आत्मा विद्यमान है, तभी तक इसके विषयमें अनेक प्रकारके भेद भावोंकी कल्पनाएँ की जाती हैं । शरीरके सम्बन्धसे कोई इसको ब्राह्मण, कोई क्षत्रिय, कोई पुरुष, कोई स्त्री, कोई उच्च और कोई नीच मान रहा है। परन्तु आत्मामें उच्चता और नीचता मात्र कर्मके अनुसार है । कुल गोत्रकी
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