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(२४) प्रचंड रूप दिखा रही है ! यदि ऐसा ही रहा तो आशा नही कि भारतको सुखकी शय्या कभी स्वप्नमें भी नसीब हो सके !
सद्गृहस्थो ! पदार्थ मात्रमें अपेक्षा रही हुई है । वस्तुत्वका विचार करनेके लिए “ अपेक्षावाद " का मिद्धान्त बहुत उपयोगी है। आज जितना मतभेद दृष्टि गोचर हो रहा है उसका निराकरण, अपेक्षावादके सिद्धान्त द्वारा बड़ी सुगमतासे हो सकता है । अब मैं इस बातको एक उदाहरणसे बतलाता हूँ। स्नान करनेसे शरीरकी सफाई होती है, वह शृंगारकी मुख्य सामग्री है, यदि देवपूजाके उद्देश्यसे किया जाय तो वह (. स्नान ) धर्म कार्यमें उपयोगी होनेसे धर्म भी कहा जा सकता है। परन्तु बहुतसे आदमी स्नानमें ही धर्म मान रहे हैं ! यदि यह बात सर्वथा ठीक हो तब तो वेश्याको सबसे अधिक धर्मात्मा कहना चाहिए ! क्योंकि वह तो दिन भरमें चार पाँच दफा स्नान करती है। इसलिए मात्र सौन्दर्य वृद्धिके लिए जो स्नान है वह धर्म नहीं किन्तु देवपूजाके निमत्त किया गया स्नान देव पूजा जैसे धार्मिक कृत्यमें उपयोगी होनेसे धर्ममें परिगणित किया जा सकता है । तात्पर्य कि, किसी दृष्टिसे स्नानादि कर्म, धर्मके नामसे निर्दिष्ट किये जा सकते हैं, सर्वथा उनको धर्ममें समाविष्ट करना सत्यका निस्संदेह गला घोटना है। इसी तरह हरएक कर्तव्य विषयका अपेक्षावादकी पद्धतिद्वारा
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