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( २९ )
कि, जो अपने बाप दादा करते चले आए हैं वही अपना धर्म है । उसीके अनुष्ठानसे अपना कल्याण होनेवाला है, दूसरेका जो धर्म है वह चाहे कैसा ही अच्छा हो मगर उससे कल्याणके बदले भय ही होगा ! यदि इस लोकका यही अर्थ माना जाय तब तो परमार्थके बदले अधिक अनर्थकी ही सम्भावना है । बापदादा जिसको करते चले आए हैं उसीको धर्म कहा जाय तब तो अधर्मका नाम ही उठ जाय ! शास्त्रोपदेशकी कुछ भी जरूरत न रहे !
दुनियासे
सज्जनो ! यदि बाप दादा जिसे करते थे वही धर्म हो तब तो क्षमा कीजिए आज इस जगह पर उपस्थित अधर्मी पदवी से विभूषित होना पड़ेगा । ( करतल ध्वनि)
सभीको
आज जिस तरह की सभा एकत्रित हो रही है, सभ्यगण जिन २ पौशाकों में सुसज्जित हुए जिस प्रकार बैठे हुए हैं, क्या आजसे तीन चार पीढ़ी प्रथम अपने बाप दादा इस ढंगसे और इस ड्रेससे कभी बैठे या बैठते थे ? यदि नहीं तो क्या हमारे इस आचारसे धर्म कहीं भाग गया ? अथवा हम अधर्मी हो गए ? यदि बाप लूला हो, लंगड़ा हो, निर्धन हो, खूनी हो, तो क्या बेटे को भी वैसे ही होना चाहिए ? बाप यदि अंधा होकर युवा अवस्था में ही गुजर जाय तो क्या पुत्रको भी आँखों से अंधा होकर युवावस्था में ही प्राण दे देने चाहिए ? नहीं नहीं ऐसे
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