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(२८) भी सम्बन्ध नहीं । वह मात्र द्रष्टा रूपसे सर्वदा विद्यमान है। इस लिए गंभीर विचार करनेसे इस प्रकारके शुष्क विवादोंको दूर करके सबको आपसमें मेल बढ़ाना चाहिए । धर्मका रहस्य सबके लिए एक ही है ! वह आत्माका स्वाभाविक गुण है । उसीके समझनेसे आत्माको उन्नत दश की प्राप्ति होती है ! (करतल ध्वनि) ___गृहस्थो ! धर्मके निमित्तसे लोगों में अधिक मत भेद होनेका एक और भी कारण है । लोग स्वधर्म और परधर्मके रहस्यको न समझकर किसी वक्त बड़े २ अनर्थ भी कर बैठते हैं। वे लोग यही समझते हैं कि, हमारे बाप दादाके वक्तसे जो कुछ रस्मोरिवाज चले आते हैं वे ही धर्म हैं । चाहे वे कैत ही क्यों न हों ! परंतु स्वधर्म और परधर्म शब्दके वास्तविक अर्थपर विचार करें तो मालूम हो जायगा कि, इसमें कितना रहस्य समाया हुआ है । स्व नाम आत्माका है। वस्तुके स्वभावका नाम धर्म है । अतः आत्माका जो स्वभाव वही स्वधर्म है । इसी लिए भगवद्गीताके अन्दर लिखा है कि “ स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः”
स्व-( अपने ) धर्ममें यदि मृत्यु भी हो जाय तो भी अच्छी है मगर परधर्म-दूसरेका धर्म भयका देनेवाला है। - इस श्लोकका बहुतसे आदमी यही अर्थ समझ रहे हैं
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